छायावाद आधुनिक हिंदी कविता का एक स्वर्णिम अध्याय है। इस युग ने हिंदी कविता को जयशंकर प्रसाद सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा जैसे कालजयी कवि दिए जिनकी कविताएँ विश्व की किसी भी भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवियों की कविताओं से निःसंकोच मैत्री कर सकती हैं। सभी छायावादी कवि स्वभाव से ही रुमानी और विद्रोही प्रवृत्ति के थे। इन्होंने आर्थिक विषमता सामाजिक जड़ता और राजनीतिक दासता पर पूरी निर्भीकता एवं प्रखर-चेतना से युक्त कविताएँ लिखी थीं। छायावाद प्रकृति के विराट् पृष्ठभूमि पर पल्लवित पुष्पित हुआ है। आज विकास के नाम पर प्रकृति का जिन रुपों में सर्वनाश किया गया है उसने मानवता के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। प्रकृति के सुकुमार कविं पंत के लिए प्रकृति देवी माँ सहचरी प्राण सब कुछ थी। आज का स्वर्थी मानव प्रकृति का चीरहरण करने पर तुला हुआ है। आज जरूरत है छायावादी कविताओं को नये सिरे से समझने की जिसमें श्रद्धा ने मनु को जैव-विविधता के विध्वंसकारी कार्यों से बचने के लिए सचेत किया था। हम छायावादी कविताओं के पुनर्पाठ के माध्यम से लोगों में सह-अस्तित्व और समरसता के संदेश को संप्रेषित करें तो यह बड़ा ही लोकहितकारी कार्य होगा। प्रकृति के चतुर्दिक दोहन के साथ-साथ नारी-सम्मान का मान-मर्दन एवं दैहिक शोषण का सिलसिला निरंतर जारी है। महाकवि प्रसाद ने कामायनी में जिस श्रद्धा स्वरूपा की स्थापना की थी वह पुरुष के जीवन में पग-पग पर विश्वास जगाने का काम करती थी। लिव-इन रिलेशन के इस चिंतनीय दौर में कामायनी सहित उन सभी छायावादी कविताओं का पुनर्वाचन जरुरी हो गया है ताकि हम स्त्री-पुरुष के उलझते जा रहें उन संबंध सूत्रों को नये सिरे से सुलझा सकें। यह सुखद संयोग का विषय है कि सभी छायावादी कवि युवा थे। वे प्रेम और सौंदर्य के उन्मुक्त गायक थे। उनके निजी प्रेम में विश्व-प्रेम समाहित था। उनका प्लेटोनिक प्रेम अशरीरी और अतींद्रिय था। उनका प्रेम भास्वर और उदात्त था। हम छायावादी कविताओं के दिव्य सौंदर्य-बोध से नयी पीढ़ी को रु-ब-रु करवाएँ ताकि उनका रुचि-परिष्कार हो सके। छायावाद के सौ वर्ष पूरे होने पर इन कवियों की कविताओं पर चर्चा सिर्फ अतीतराग से प्रेरित नहीं है।
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