CHIMNIYON SE LAHOO KI GANDH
Hindi


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About The Book

जयनंदन एक स्टील कंपनी में कार्यरत रहे हैं। कारखाने में एक मजदूर को जिस घुटन में सांस लेना होता है और उसे जिन विषम यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है लेखक ने कुछ दबे-कुचले चरित्रों की जिजीविषा के माध्यम से इस उपन्यास में उनके दारूण व्यथा-कथा को उकेरा है। मौजूदा वक्त में यूनियन और श्रम- कानून एक हास्यास्पद लॉलिपॉप तथा जुमला बन कर रह गया है। शोषण उत्पीड़न तथा अमानुषिक अत्याचार मजदूरों के जीवन का शाश्वत यथार्थ है। कारखाने की भट्ठियों को कोक बिजली और उत्प्रेरक इंधन से ज्यादा मजदूरों के लहू और पसीने प्रज्ज्वलित रखते हैं। इसीलिए चिमानियों से निकलने वाले धुएं में लहू की गंध समायी रहती है। भाषा और संवाद की परिपुष्टता और कथा-प्रवाह की रवानगी को धारदार बनाने में लेखक की सुदीर्घ लेखकीय साधना और संचित मेधा ने अपूर्व कौशल का परिचय दिया है। इस निमित्त यह औपन्यासिक कलेवर में हर दृष्टि से खरा उतरकर पठनीयता को यथेष्ट आस्वाद देने में पूरी तरह समर्थ है। भाषा साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में नीति और आदर्श की बातें बहुत कही जाती हैं पर यथार्थ की कठोरता का मार्मिक और निर्भीक विवेचन करना सबके लिए आसान नहीं होता। यह उसके लिए ही संभव है जो स्वयं उस दमन-चक्र का गवाह या भुक्तभोगी रहा है। इस पटुता का परिचय जयनंदन के इस उपन्यास के प्रत्येक प्रसंग में मिलता है। जो श्रम करता है फल उसे नहीं मिलता। विडम्बना यह है कि श्रमिक को पुरस्कृत करने के स्थान पर उसे बुरी तरह शोषित प्रताड़ित और लांछित होना होता है। यह युगों से चली आ रही श्रमजीविता की सबसे बड़ी त्रासदी है। इसी त्रासद नृशंसता के विरुद्ध सात्त्विक आक्रोश का सशक्त स्वर उठाता है जयनंदन का यह उपन्यास ‘‘चिमनियों से लहू की गंध’’
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