यह पुस्तक लड़कियों के मानस पर डाली जाने वाली सामाजिक छाप की जांच करती है । वैसे तो छोटी लड़की को बच्ची कहने का चलन है पर उसके दैनंदिन जीवन की छानबीन ही यह बता सकती है कि लड़कियों के सन्दर्भ में बचपन शब्द की व्यंजनाएँ क्या हैं । कृष्ण कुमार ने इन व्यंजनाओं की टोह लेने के लिए डॉ परिधियाँ चुनी हैं । पहली परिधि है घर के सन्दर्भ में परिवार और बिरादरी द्वारा किए जाने वाले समाजीकरण की । इस परिधि की जांच संस्कृति के उन कठोर और पीने औजारों पर केन्द्रित है जिनके इस्तेमाल से लड़की को समाज द्वारा स्वीकृत औरत के सांचे में ढाला जाता है । दूसरी परिधि है शिक्षा की जहाँ स्कूल और राज्य अपने सीमित दृष्टिकोण और संकोची इरादे के भीतर रहकर लड़की को एक शिक्षित नागरिक बनाते हैं । लड़कियों का संघर्ष इन डॉ परिधियों के भीतर और इनके बीच बची जगहों पर बचपन भर जारी रहता है । यह पुस्तक इसी संघर्ष की वैचारिक चित्रमाला है ।.
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