चौराहा एकदम नई भावभूमि पर लिखी कथा है। यह उपन्यास बड़े शहरों में फैले भिखारी गिरोहों की कथा है। एक ऐसे भिखारी तंत्र की कथा जिसे बकायदा एक भिखारी माफिया चलाता है। शहर के हर चौराहे पर इस माफिया का राज है। भिखारी इस गिरोह के सदस्य हैं। यह विषय बेहद गहन शोध मांगता था। लेखक ने बहुत समय तक यह शोध की। शहर के इस भिखारी तंत्र को समझा। वे इस विषय पर थ्रिलर जैसा रच सकते थे। पर उन्होंने एकदम हट कर काम किया। एक ऐसे लावारिस नवजात के बचपन में ही किशोर होने की कथा से भिखारी तंत्र की बारीक स्टडी को इतने कौशल से गुंथ दिया कि एक बेहद रोचक कथा बन गई। चौराहों पर भीख मांगती औरतों के कंधों पर (रोज नए कंधे नित्य नए चौराहे) घूमता बच्चा जिसके नाम पर वे भीख मांगती हैं। फिर इस बच्चे का वहाँ होना फिर उसकी तलाश कि मेरी असली माँ कौन है? कैसे वह बच्चा अपनी माँ तक पहुंचता है और इस रास्ते में वह उपन्यास को इस भिखारी तंत्र की जटिल गलियों से कहाँ-कहाँ ले जाता है। यही चौराहा को रोचक भी बनाता है और एकदम अलग भी।
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