...मेरी ग़ज़लें सिर्फ रूप रस गंध की अत्यंत मनोहारी सुगंध ही नहीं बिखेरतीं बल्कि ये ग़ज़लें अपने समय और समाज की कई ज्वलंत समस्याओं कुरीतियों और प्रचलनों पर प्रश्नचिन्ह भी खड़ा करती हैं । मैंने इन ग़ज़लों के माध्यम से सांस्कृतिक बदलाओं के दौर में एक जनपक्षीय तहजीब को संवारने की भी कोशिश की है ।ग़ज़ल नें अब तक धार्मिक मंचों पीरों की मजारों से चलते हुए राजाओं व नवाबों की महफिलों से गुजरते हुए चौराहों व सड़कों तक की यात्रा की है। ग़ज़लें कभी तवायफों के कोठों की शान हुआ करती थीं आज गली-चौपालों पर जनता के सुर से सुर मिलाकर उनके दिलों के द्वार खटखटा रही हैं। ग़ज़ल का फार्म भले ही अरब में पैदा हुआ हो पर ईरान और हिंदुस्तान के सूफी संतों फकीरों और संत कवियों ने इसे एक मुकाम दिया है। दुष्यंत कुमार ग़ज़ल को जन-जन की जुबान बना दिया। इसकी जन पक्षधरता से प्रभावित आज हजारों लोग भारत की भित्र-भित्र भाषाओं में इसे स्वर दे रहे हैं। आज ग़ज़लें जनता से सीधे संवाद कर रही हैं मेरी ग़ज़लें मेरे दिल से ही निकली हैं। यदि ये आपके दिल के दरवाजे पर दस्तक दे सकें तो इनके होने को एक अर्थ मिल सकेगा। उम्मीद है कि इन्हे यह सफलता अवश्य मिलेगी । में अपनें साथीयों का आभारी हूं जिनकी आलोचना और प्रसंशा नें मेरे लिए उस्ताद की भूमिका निभाई। उस दौर के कुछ साथी जो हिंदी में ग़ज़लें कह रहे थे उनका मानना था कि ग़ज़लें कहना एक टेढ़ी खीर है ।मैनें उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश की और सफल भी हुआ। इस कोशिश में साथी मुस्तहसन अज़्म जी का साथ व सानिध्य मेरे लिए वरदान साबित हुआ। यह संग्रह भी उन्हीं के प्रोत्साहन व सहयोग से मेरी अबतक कही सभी ग़ज़लों को इकत्रित करने व छपवाने के लिए प्रेरित करने पर संभव हो पाया है ।उनके प्रति कृतज्ञता व हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं । ---हृदयेश मयंक
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