स्मृतियाँ जैसे एकांत में दरवाज़े के बाहर हमेशा प्रतीक्षा करती रहती हैं कब खुलें और कब वे अंदर आ जाएं। उनका आना हमेशा सुखकर हो कोई जरूरी नहीं। कई बार लाती हैं अपने साथ वे दिन मास और पल जिन्हें अपनी ज़िंदगी से बाहर कर देने की इच्छा रही थी या जिन पर समय की गहरी परत जम चुकी थी और हम वैसे हो गए थे जैसे वह किसी और जन्म की कहानी थी। उनका बेमौसम आना अवसाद को और गहरा कर जाता है। -राकी गर्ग
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