गोविंद सेन की कहानियों के निर्माण में उनका परिवेश और अंचल बड़ी भूमिका निभाते हैं। यह एक सुन्दर विडम्बना है कि उनका गृहनगर भौगोलिक रूप से ऐसी जगह पर स्थित है जहाँ निमाड़ और मालवा जैसी दो संस्कृतियों का सहज संगम विद्यमान है। नर्मदा की सुरम्य जलधारा से हरे-भरे इस पूरे अंचल की लोक-संस्कृति बोली-बानी लोक-व्यवहार रहन-सहन का जीवंत और कुशल चित्रण गोविन्द सेन के लेखन में और इस किताब के संदर्भ में उनकी कहानियों में सीधे-सीधे उठकर चला आता है। उनके पात्र इसी लोक-संस्कृति के चलते-फिरते साँस लेते पात्र हैं। जिस तरह यहाँ शिल्प के स्तर पर कोई बनावटीपन या बनावटीपन का प्रयास नहीं है उसी तरह उनके पात्र भी अपनी प्रस्तुति में ईमानदार और अपनी परिवेशगत पहचान के साथ उपस्थित हैं। भाषा के स्तर पर कहानीकार पाठक पर आक्रमण भले ही न करता हो लेकिन कहानियों में शामिल व्यंग्य की अंडरटोन को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। इन कहानियों के सहज पाठ से गोविन्द सेन के भीतर के व्यंग्यकार की अकुलाहट को जाना और समझा जा सकता है। कुछ कहानियों में तो व्यंग्य तल्खी में भी तब्दील हो गया है। यह लेखकीय इच्छा और अनिच्छा के द्वन्द्व के बीच होने की झुँझलाहट में सम्भव हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है और माना जा सकता है। कहानियों के विषय सामान्य जीवन और जीवन प्रसंगों से उठाए गए हैं लेकिन अपनी अर्थ अन्विति में हमारे सामाजिक जीवन और लोक के बदलते स्वरूप के उद्घाटन करने का सार्थक यत्न भी हैं। प्रदीप जिलवाने प्रतिष्ठित युवा लेखक
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