“दीवानगी-ए-शम्मा भगवान स्वरूप कुलश्रेष्ठ की ताज़ातरीन नज़्मों का संग्रह है। मेरा जन्म १० जून १९४३ को हाथरस जिले के सिकंदरा राव तहसील के एक छोटे से गांव में हुआ। घर में पढाई का माहौल होने के कारण बचपन से ही मेरा झुकाव पढाई की तरफ रहा। पिता उर्दू और अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे वे उर्दू मुशायरा के बहुत शौकीन थे। मेरी माँ बहुत धार्मिक विचारों वाली थीं। १९५८ में महज़ १५ वर्ष की आयु में माँ का साया मेरे सिर से छिन गया । इस घटना ने मेरे को अंदर तक झकज़ोर दिया। उसके बाद में अपने पिता के साये में बड़ा हुआ। नज़मों को सुनने का शौक़ मेरे को अपने पिता और बचपन के सखा राध्ये श्याम सक्सेना से लगा। शुरुआत की पढाई मेरी गांव में हुई और बाकि की पढाई सिकंदरा राव में हुई। पढाई के दौरान मेरा झुकाव उर्दू ज़बान की तरफ हुआ और बचपन के सखा से लिखने की प्रेणना मिली। लखनऊ में मैंने अपनी पहली नौकरी करी। लखनऊ की आबोहवा में नज़म लिख़ने का जूनून बड़ा और उर्दू और हिंदी के लब्ज़ों का इस्तेमाल करते हुए में नज़्म लिखने लगा। मैंने अपनी सेवा मिल्टरी इंजीनियरिंग सर्विसेज में १९६६ से २००३ तक दी। मेरी शादी आगरा उत्तर प्रदेश की निर्मल कुलश्रेष्ठ से हुई। शादी के बाद मेरा नज़्म लिखने का जनून बढ़ता गया। अब तक २५०० से अधिक नज़्मों के जरिए अपने हाले-दिल को कागज़ पर बयां कर चूका हूँ । दीवानगी-ए-शम्मा राकेश शम्मा की पहली नज़्मों की श्रृंख्ला है जिसमें समाज के अनछुए पहलुओं को सामने लाने का प्रयास किया गया है कि इन्सान आज के हसीन लम्हों को जीना भूलकर कल की चिन्ता में भागता रहता है परिवार में बढ़ती कटुता अपनों के बीच कम होते प्यार चाहे वह पति पत्नी का हो प्रेमी प्रेमिका को हो परिवार के बीच हो को अपनी नज़्मों के जरिए बयां करने का प्रयास किया है। दीवानगी-ए-शम्मा मेरे माता पिता को समर्पित है। मेरी पत्नी मेरे सुख-दुःख में हमेशा साथ रही और मेरे को लिखने की प्रेणना दी। मैं मेरे बच्चों और प्रियजनों का आभार व्यक्त करता हूँ जो हमेशा मेरे साथ रहे। उम्मीद है आप को मेरी पहली नज़मों की श्रृंख्ला दीवानगी-ए-शम्मा पसंद आएगी और मेरे को लिखने के लिए प्रेरित करेगी।
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