समलिंगी प्रेम की स्वाभाविकता और उसके इर्द-गिर्द उपस्थित सामाजिक-नैतिक जड़ताओं को उजागर करता यह उपन्यास अपने छोटे-से कलेवर में कुछ बड़े सवालों और पेचीदा जीवन-स्थितियों का धैर्यपूर्वक सामना करता है। परिवार की मौजूदा संरचना के बीचोबीच जाकर वह सम्बन्धों भावनाओं और कामनाओं के संजाल में आपसी समझ का ऐसा रास्ता निकालता है जो पीड़ाजनक तो है लेकिन आधुनिक वयस्क मन को फिर भी स्वीकार्य है। समाज लेकिन उतना वयस्क अभी नहीं हो सका है न ही तमाम तकनीकी कौशल के बावजूद उतना आधुनिक उदार और मानवीय कि किसी नई शुरुआत को स्वीकार कर सके। अस्तित्व के यौन-पक्ष को लेकर आज भी भारतीय समाज उत्कंठा और वितृष्णा के विपरीत बिन्दुओं के बीच डोलता रहता है। जिसे वह प्राकृतिक कहता है वह सेक्स भी उसे सहज नहीं रहने देता; जिसे वह कहता ही अप्राकृतिक है उसकी तो बात ही क्या! श्लोक सिंह को अपने यौन रुझान के चलते नौकरी से निकाल दिया जाता है और अनुराग जो उसका प्रेमी है और संयोग से श्लोक की पत्नी का भाई हर उस लांछना का सामना करता है जो किसी सफल-सुखी व्यक्ति के लिए यूँ भी लोगों की जेबों में हर समय तैयार रहती हैं। गालियाँ फटकार हत्या की धमकी आदि। लेकिन मीरा श्लोक की पत्नी जिसे उन दोनों के प्रेम की सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकानी पड़ी इतनी वयस्क है कि मनुष्य-मन की सूक्ष्मतर आत्मोप्लब्धियों को स्वीकार कर सके अपनी स्वयं की क्षति को लाँघकर जीवन की नई दिशाओं के लिए द्वार खुला रख सके। सरल और संक्षिप्त कथानक के माध्यम से यह उपन्यास धारा 377 के हटाए जाने के कुछ ही समय पहले शुरू होता है और कोर्ट के इस वक्तव्य के कुछ बाद तक चलता है कि ‘इतिहास को LGBTQ समुदाय से उन्हें दी गई यातना के लिए माफ़ी माँगनी चाहिए।’ वस्तुत: यह उपन्यास समाज की खोखली मान्यताओं और संकीर्ण घेरेबन्दियों के विरुद्ध ज़्यादा खुली दुनिया के निर्माण की एक मार्मिक पुकार है।
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