यह ग्रंथ न तो किसी सम्प्रदाय का पक्षधर है न ही किसी पंथ विशेष का विरोधी है. इसका उद्देश्य है “सार्वभौमिक धर्मबोध को भारत की मूल चेतना से जोड़ना है.” जब हम ‘धर्म’ से ‘भारतधर्म’ की ओर बढ़ते हैं तो हम धर्म की उस समावेशी परिभाषा की ओर लौटने का प्रयास करते हैं जिसमें “सर्वे भवंतु सुखिन:” और “वसुधैव कुटुंबकम्” जैसी अवधारणाएं हों. उसमें केवल उपदेश नहीं बल्कि जीवन जीने की समस्त पद्धतियां हों. दूसरी बात इस पुस्तक का उद्देश्य न केवल धर्म में उत्पन्न हर विकृति को पहचानना हैं बल्कि भारत की मूल आध्यात्मिक परंपरा की पुनर्स्थापना की ओर एक गंभीर वैचारिक प्रयास करना भी है. यह ग्रंथ पाठकों को केवल ज्ञान नहीं अपितु एक अनुभूति देना चाहता है-- कि धर्म अगर बांटता है तो वह धर्म नहीं है; कि जो जोड़ता है वही धर्म है वही भारतधर्म है. यह ग्रंथ पाठकों को उस यात्रा पर ले जाता है जहां ‘धर्म’ की वर्तमान छवि से ऊपर उठकर हम उस भारतधर्म-छवि की ओर अग्रसर होते हैं जो जीवन के हर स्तर पर समरसता सह-अस्तित्व और सार्वभौमिक करुणा का संदेश देता है.
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