कविता द्वंद्व की उपज है। कवि की समय और समाज से चल रही कश्मकश में स्वयं से की गयी बातचीत। एक प्रकार से कविता के प्रश्न स्वयं कवि के कवि से प्रश्न होते हैं। यदि उत्तर सहज प्राप्य होते तो कविता की उत्पत्ति नहीं होती। नमक रोटी के फेर में पडा आम जनजीवन भी इन समस्याओं और सवालों से रोज़–ब-रोज़ रूबरू होता है लेकिन उसकी प्राथमिकताएँ एक परेशान हाल कवि या लेखक से भिन्न होती हैं। वह अपने क्षोभ का शमन कर लेता है अथवा उसके साथ जीने की आदत डाल लेता है। लेकिन देर से ही सही चेतन जन गण मन कभी न कभी जब कविता से सामना होता है तो उसमें समय और सत्ता से मुठभेड़ की ताक़त आ ही जाती है। बहुत हद तक समष्टिगत हो जाना कविता की सफलता है।
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