‘धुप्पल’ यह एक निर्विवाद तथ्य है कि अपने कथा-कृतित्व में अनेकानेक व्यक्ति-चरित्रों को उकेर्नेवाले सधानाशील रचनाकारों का अपना जीवन भी किसिस महान कृति से कम महत्व नहीं रखता इसलिए उन विविध जीवानानुभवों को यथार्थतः कागज पर उतार लाना एक महत्तपूर्ण सृजनात्मक उपलब्धि ही माना जाएगा | इस नाते सुविख्यात कृति-व्यक्तित्व भगवतीचरण वर्मा की यह कथा-कृति आत्मकथात्मक उपन्यासों में एक उल्लेखनीय स्थान की हक़दार है | कस्बे का एक बालक कैसे भगवतीचरण वर्मा के रूप में स्वनामधन्य हुआ इसे वह स्वयं भी नहीं जानता | जानता है तो सिर्फ उस जीवन-संघर्ष को जिसे वह ‘धुप्पल’ करार देता है | आत्मकथा न लिखकर भगवती बाबू ने यह उपन्यास लिखा यह बात उनके रचनाशील मनन की अनवरत सृजनात्मक सक्रियता की ही सूचक है | ‘धुप्पल’ में जो गंभीरता है वह भगवती बाबू के चुटीले भाषा-शिल्प के बावजूद अपनी तथ्यात्मकता का स्वाभाविक परिणाम है | लेखक के साथ-साथ इसमें एक युग मुखर हुआ है जिसके अपने अंतर्विरोध अगर लेखकीय अंतर्विरोध भी रहे तो उन्होंने उसके सृजन को ही धारदार बनाया | इसलिए धुप्पल सिर्फ ‘धुप्पल’ ही नहीं लेखकीय संघर का सार्थक दस्तावेज भी है |
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