कूटस्थ दीप इस प्रकरण में हमें यह सिद्ध हुआ कि एक ही तत्त्व पर भोक्ता भोग्य उपाधि के कारण अन्य प्रतीत होते हैं। यदि हम इन उपाधियों का तिरस्कार कर दें तो उसके आधिष्ठान का दर्शन स्वाभाविक है। एक जगह तो हमको बताते हैं कि यह तत्व मन बुद्धि इन्द्रिय और वाणी इनके क्षेत्र में नहीं आता। अतः इसको कैसे अनुभव करें? इस पहेली को सुलझाने के लिए संवादि भ्रम के तत्व पर ब्रह्म की उपासना करके स्वरूप में निष्ठा प्राप्त होती है। साधारण दृष्टि से ज्ञान का तात्पर्य उपाधि प्रधान होता है। और उसमें साधक शरीर मन इनके नियंत्रण में ही लगा रहता है। और इसका परिणाम मैं को मुक्त करना यह लक्ष्य बन जाता है। वास्तविक देखा जाये तो इस मैं से ही हमको मुक्त होना है। इसी सिद्धान्त को ध्यानदीप इस प्रकरण में कर्म उपासना ध्यान और निर्गुण निराकार ब्रह्म के चिन्तन के माध्यम से स्पष्ट किया है। अतः इस अध्याय के अध्ययन और अभ्यास के द्वारा अपरोक्षानुभति अवश्यमेव ही है। यही है मैं से मुक्त होना। -स्वामी अनुभवानन्द
Piracy-free
Assured Quality
Secure Transactions
Delivery Options
Please enter pincode to check delivery time.
*COD & Shipping Charges may apply on certain items.