पिछली सदी के 70 और 80 के दशक में हिंदी पट्टी में कुछ बहुत ही लोकप्रिय गैर-फिल्मी कलाकारों के नाम याद करने की कोशिश करें तो के. के. नायकर का नाम सबसे पहले जेहन में आता है। जीवन के प्रति उनकी दृष्टि गहन और बारीक रही है। खुद उनके शब्दों में कहें तो ‘अपन अपनी कला को खुदा की नेमत मानते रहे सो इसकी शुद्धता के साथ कोई समझौता नहीं किया। क्या यह अजूबा नहीं है कि विगत लगभग 5-6 दशकों से विभिन्न मंचों से लगातार कार्यक्रम करते हुए भी उन्होंने आज तक किसी प्रस्तुति के लिए एक पंक्ति भी नहीं लिखी। इस किताब में लिखी गई नायकर की कहानी उनसे बातचीत पर आधारित है। उनका ‘ऑब्जर्वेशन’ चूँकि बहुत बारीक है इसलिए आप बीते हुए दिनों की झलक ज्यों की त्यों पा सकते हैं- कुछ ‘नॉस्टैल्जिक’ होकर। विवरण किस्सागोई शैली में है इसलिए पढ़ते हुए आपको कहीं भी बोझिलता महसूस नहीं होगी। कहीं-कहीं शायद आपको वही आनन्द आए जो आपको नायकर को देखते-सुनते हुए आया हो।
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