ll दृश्य-अदृश्य llचरित्र आपके सामने हो और आप उसे समझ न सकें। इतना अनप्रिडिक्टेबल हो वह कि पल पल धोखा देने लगे। जीवन में समय के साथ अपनी ही तरह चलना चाहा था कथानायक विचंश ने। शायद उनका मन था कि समय की शक्लोसूरत भी संवारते चलें और एक नए इतिहास की निर्मिति भी कर सकें। जिस सीमित परिवेश से निकलकर वह एक बड़ी दुनिया के नागरिक बने थे क्या वह उन्हें समझ भी सकी ? कैसे बनाई एक नई दुनिया इस कथा के नायक ने जहां लोभ मोह स्वार्थ हानि-लाभ का कोई गणित दूर-दूर तक नजर ही नहीं आता था। ऐसा क्या था उनमें कि जो एक बार उनसे मिल लेता उन्हीं का होकर रह जाता। पर उनकी दुनिया में शामिल होने की उनकी कुछ शर्तें भी थीं। मिलने वाला निष्कुंठ हो महज अपने समय में जीने-मरने वाला न हो वह अपने वृहत्तर समाज के अतीत को तो जाने ही उसे उसका भविष्य संवारने की संजीदा फिक्र भी रखता हो। वह ऊपर से एकाकी नजर आते हों भले पर उनका संसार कितना भरा-पूरा था कि उसकी एक एक चीज वह आंख बंद कर के भी बाकायदा महसूस कर सकते थे। उन्होंने पूरी दुनिया घूमते हुए अपने मिजाज के लोगों को पहचाना ही नहीं हमेशा के लिए अपना भी बना लिया।उनकी यायावरी की मासूमियत ही तो थी जिसने भाषा समाज देश धर्म और संस्कारों की तमाम सरहदों को ध्वस्त कर अपनी एक नवीन दुनिया बनाई थी। जो बचपन से ही अपनी बात बड़े साफ और निर्भीक ढंग से कहने में यकीन रखते थे और जन्माष्टमी की झांकी पर सबसे हटकर भारत माता का रोल करने लगते थे। तब बनारस ही सब कुछ था विचंश के लिए जो अंत तक उनके साथ भीतर ही भीतर सफर करता रहा। यूं तो जिंदगी हर कदम पर उन्हें कोई न कोई सबक सिखाती ही रही पर सबसे बड़ा सबक वह खुद बन गए दूसरों के लिए। उन्होंने आजादी से बहुत-सी उम्मीदें लगाई थीं बहुत-से जेनुइन समाज सुधारकों रचनाकारों बद्धिजीवियों कलाकारों और नेताओं का साथ पाया था पर समय की धूल ने जैसे उस सब पर ऐसा परदा खींच दिया कि वह असंतुष्टि का पहाड़ बन गए। बावजूद इसके उन्होंने अपने आपको एक साधक बना लिया और हर पल अपनी साधना में लीन रहने लगे। कैसी थी यह सार्थक साधना जो समूचे मानव समाज का हित चाहती रही। जो चाहती कि हर इंसान को भरपेट भोजन मिले और पूरे सम्मान के साथ।अपनी इस साधना में जो हरदम इस कदर सावधान रहा कि कोई उस पर कभी अंगुली तक न उठा सके और बेफिक्र रहा इस कदर कि जब सारा जहां ही अपना है तो खतरा किस बात का ? जो कोरोना काल में भी कहता रहा कि इतना मत डराओ कि इंसान दहशत से ही मर जाए। ये जो बेपरकी बातें हर आदमी जानकार बनकर उड़ाने में लगा है उससे बचना तो और ज्यादा जरूरी है। उन्हें अपने से कहीं ज्यादा फिक्र तो उन करोड़ों साधनहीन लोगों की थी जो अपने घरों से सैकड़ों मील दूर खौफ में जीने को मजबूर हैं। दरअसल विचंश जानते थे कि असल जीवन तो मरने के बाद शुरू होता है.... जहां दृश्य और अदृश्य का भेद ही खत्म हो जाता है। एक बेहद नया कथा-प्रयोग... ।
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