Dukh Ki Dainandini
Hindi

About The Book

यह संसार सुखवाद से ग्रस्त है। यहाँ सुख बहुत वाचाल हो गया है। सुखी कैसे हों सफल कैसे हों यह सिखाने वाली पुस्तकों से बाज़ार भर गए हैं इसके बावजूद लोगों के भीतर पहले से ज़्यादा ख़ालीपन है। दु:ख की दैनन्दिनी का कवि सुख का स्वांग नहीं करता उलटे दु:ख की गहरी अनुभूति को ना केवल भोगता है बल्कि उसे अभिव्यक्त भी करता है। यह पुस्तक उसी से साकार हुई है। यह दु:ख की पुस्तक है। दु:ख से जो सुख मिलता है वह इससे भले मिले इससे वैसी ख़ुशी तो नहीं ही मिलने वाली जिसकी तलाश में हमारी मौजूदा नस्लें मारी-मारी फिरती हैं। इसका स्वर गहरा और उदास है आत्मचिंतन से भरा है विषाद इसका राग है। इसके बारे में अधिक बातें करना भी इसके मिज़ाज के अनुरूप नहीं। इसे अश्रव्य रहना चाहिए इसके अनुरूप पाठक की आत्मा में तरंग उत्पन्न हो और अनायास ही वैसा हो तो ही सुंदर। लोकोदय प्रकाशन से ही इससे पूर्व प्रकाशित ‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ में रागात्मकता की बड़ी शिद्दत थी। यह उसका दूसरा आयाम है। प्रणय अगर पूर्वराग है तो शोक उत्तरकथा। अनेक अर्थों में गुलमोहर और दैनन्दिनी एक-दूसरे की पूरक पुस्तकें हैं। -सुशोभित
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