`एक देश-एक चुनाव : भारत में राजनीतिक सुधार की संभावना' कुल तीन खण्डों में है। हर खण्ड में अनेक अध्याय है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से बात शुरू कर लेखक ने सिलसिलेवार अध्याय को आगे बढ़ाया है। इतिहास के साथ वर्तमान और भविष्य तीनों का सामंजस्य बिठाने की सार्थक कोशिश है। यह कहा भी जाता है कि हमें भविष्य में जितनी दूरी तय करनी होती है जितना आगे जाना होता है उतना पीछे मुड़कर देखना प्रेरणा भी देता है और सबक भी। आमतौर पर ऐसी किताबों के लेखन में तर्क प्रमुख हो जाता है। लेखक निजी विचारों के दायरे में बँधकर अपने तर्कों को सामने रखते हैं। पर श्री अनूप बर्नवाल जी ने इस पुस्तक में अपने निजी तर्कों को हाशिये पर रखा है तथ्यों को प्रधानता दी है यह उल्लेखनीय है। तथ्यों से ही मानस बनता है। स्पष्ट है कि लेखक की मंशा है कि इस जरूरी और महत्व के विषय पर सभी तथ्य सार्वजनिक बहस-संवाद के केंद्र में हो ताकि निर्णायक लोकमत या जनमत इस विषय पर बन सके। ... पर इन सब बातों के बीच भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में इस बात की माँग समय-समय पर होती रही है कि इस देश में एक समय पर सभी चुनाव होने चाहिए। एक बारगी सोचने पर यह लग सकता है कि ७० के दशक में जिस तरह इस व्यवस्था या परंपरा को खत्म कर धीरे-धीरे देश को हमेशा चुनावी मोड़ में रखने की बुनियाद तैयार की गयी उसमें अब संभव नहीं कि 'वन नेशन-वन इलेक्शन' का सपना साकार हो। पर उसकी संभावनाएँ हैं। लेखक श्री बर्नवाल ने अपनी इस पुस्तक में उन्हीं सभी संभावनाओं की पड़ताल की है और संविधान कानून से लेकर सैद्धांतिक-व्यावहारिक तौर पर आनेवाली चुनौतियों और उनसे पार पाने के रास्ते के बारे में विस्तार से लिखा है। आशा है पुस्तक इस महत्त्वपूर्ण विषय को आगे बढ़ाने में सार्थक हस्तक्षेप करेगी। जनमानस को तथ्यों से परिचित करायेगी। इस पुस्तक का प्रसार अधिक से अधिक हो यही कामना है। इस महत्त्वपूर्ण विषय पर श्रम और लगन से काम करने के लिए लेखक अनूप बर्नवाल देशबंधु जी को शुभकामनाएँ। - हरिवंश उपसभापति राज्य सभा (पुस्तक के प्राक्कथन का अंश)
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