जिन्दगी भर कितनी सारी सच्चाइयों से हम सब रूबरू होते रहते हैं। कितनी- कितनी बार आहत होते हैं। पहली बार आहत होने पर दुःख होता है पर एक दिन लगता है कि अब तो बस आदत सी हो गई है। हाथ झटकाया और आगे बढ़ गए। कदम तो आगे बढ़ते ही रहने चाहिए चूँकि रुकना हार मानना है। अक्सर लोगों को कहते सुना है कि वो जिन्दगी में कुछ करना चाहते हैं (थे) बस अगर 'ऐसा' हो जाता या फिर 'वैसा' नहीं होता। अपाहिज होना किसी भी स्तर पर और किसी भी तरह से हो सकता है। जब पता चलता है उस दिन जैसे मन के किसी कोने में कुछ निष्प्राण हो जाता है बिना कोई आवाज किए। और फिर गुजरते समय के साथ जाने अनजाने संबंधों के - आसपास कितनी सारी ग्रंथियां पनप आती हैं। कितनी तल्खियों के साथ जीना पड़ता है। मगर जिन्दगी तो फिर भी चलती रहनी चाहिए। कुछ भी हो इस हार-जीत को ढोते रहना और फिर भी आगे बढना हम सबकी नियति का हिस्सा है और इसी नियति के आसपास घूम रही हैं इस संग्रह की कविताएं ।
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