आज तक संस्मरण पढ़ें बहुत लेकिन जब अपने लिखने बैठा तो पता चला यह विधा कितनी कठिन है। पता ही नहीं चलता ये तो माँ की अलौकिक शक्ति थी जो उन्होंने इन संस्मरणों को ख़ुद मेरे हाथों से ऐसे लिखवाया कि अक्षरों का अम्बार शब्दों में परिवर्तित होता चला गया ! इसलिए इसमें शब्दों के अर्थों में कहीं- कहीं मैं भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह कौन कह रहा है । बीच-बीच में इस संस्मरण संग्रह को लिखने में मेरी सहायता और सहयोग मेरी पत्नी वीणा ने की। मैं उससे एक-एक शब्द की मात्राएं पूछता । वह कितनी भी व्यस्त रही हमेशा अपनी राय से वह सही दिशा में प्रोत्साहित करती रही । इन संस्मरणों की शृंखला सच मायने में मैंने अपना जीवन जो जिया उसमें पल-प्रतिपल मेरी धड़कन की हर आवाज़ में वो रही ! साथ-साथ इस कोरोना महामारी में न जाने अपने कितने बिछड़े और उन बिछड़ने वालों के बीच मेरी माँ जो कोरोना महामारी से पूर्व ही हम से बिछड़ गयीं थी। वह हमेशा सूक्ष्म रूप में मेरे साथ रहकर मेरा साहस बढ़ाती रही
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