एक सोच जरा हट के’ एक देश की सोच है जहाँ भारत की अधिकांश जनता बहुत आशा के साथ सब कुछ देखती है लेकिन जब वहाँ पर पहुँचती है तब सब कुछ लूटा हुआ दिखता है। देश में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले नेताओं ने कभी भी अपने बच्चे को आतंकवादी नहीं बनाया। आरक्षण की दुहाई देने वाले नेताओं के बच्चे कभी आरक्षित शिक्षक से अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिलवाते साथ ही वे कभी भी अपना इलाज नहीं करवाते; लेकिन सबसे ज्यादा आरक्षण के लिए रोते हैं। उसी तरह रोड के बीच-बीच में भगवान और भक्ति को देखकर लगता है जरूर भगवान को लोगों ने बंधक बना लिया है और उन्हें अधार्मिक कृत्यों को करने के लिए मजबूर किया है।‘एक सोच जरा हटके’ हर दिन मन में उठने वाले विचार हैं जो बार-बार सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर देश को इतनी मेहनत के बाद जो आजादी मिली वो आजादी कैसे-कैसे लोगों के हाथ में चली गयी है जहाँ विश्वास नहीं धोखा है। जो बोल रहा है कब उससे पलट जाएगा कहा नहीं जा सकता। जहाँ ज्यादातर धोखा छल और कपट है जो हमेशा गरीबों को धोखा देता है। एक सुविधाभोगी वर्ग गरीब के सारे हक छीन कर उसे केवल प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल करता है। एक शिक्षक से अपनी जिन्दगी की शुरुआत करने में बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव मिलते चले गये जहाँ दूर-दूर से बच्चे ज्ञान के लिए आते लेकिन धर्म और जाति के विचारों में फंसकर रह जाते। एमएससी के बाद धर्म और जाति के बीच फंसकर रह गया। 1999 में स्लेट क्वालिफाई किया (सहायक प्रोफेसर के लिए) आरक्षण के बीच स्लेट दबकर रह गया। फिर जगदलपुर पीजी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर बना और फिर राजनीति ने सहायक प्रोफेसर से हटा दिया जहाँ पीएचडी वाले लोगों की भर्ती शुरू हुई और फिर जिन्दगी की दौड़ ने गुजरात के सूरत पहुँचा दिया जहाँ शिक्षक के रूप में काफी उतार-चढ़ाव देखा; वो सब कुछ इस पुस्तक में है जिसने बार-बार सोचने पर मजबूर किया है।
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