इस पुस्तक में उन कारक तत्वों की पड़ताल है जिसकी वजह से सामाजिक स्थितियाँ बदतर होती जा रही है। मूल्यों की गिरावट और नैतिकता के पतन का न तो उपदेश की मुद्रा में वर्णन है और ना ही उपहास की मुद्रा में। लेखक ने इस पुस्तक में उन बदलती सामाजिक स्थितियों का वर्णन किया है जिसके कारण कमजोर वर्ग हाशिये से भी परे धकेला जा रहा है और इस विश्लेषण में एक खूबसूरत व्यंग्य भाषा का इस्तेमाल पाठकों के लिये इस पुस्तक को रोचक बनाता है। संजय जैन के व्यंग्य लेख हो या उनकी कहानियाँ। उनमें व्यंग्य की भाषा की आक्रामकता की जगह धीमी आंच पर पकते व्यंग्य वर्णन है जो पूरे लेख में गंभीर अर्थ के साथ मौजूद रहते हैं। वो स्थिति की विडम्बना को व्यंग्य के तेवर में उद्घाटित करते हैं। ये ऐसे व्यंग्य लेख हैं जो किसी भी उम्र या वर्ग के पाठकों की सहज पसंद बन जाएंगे।
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