कुन्दन यादव की इन कहानियों में बनारस बोलता है। ये कहानियाँ लिखी ही इसलिए और इस तरह गई हैं कि आप इन्हें सनें। कुन्दन को बनारस की ज़िन्दगी के कुछ पहलुओं की वहाँ के कुछ लोगों की दास्तान कहनी है। इरादा सुनाने का ही है लिखे को खामखाह चमकाने या सजाने का नहीं। ठेठ बनारसी ठाठ के हँसमुख अन्दाज़ में कही गई ये कहानियाँ गुदगुदाती ज़रूर हैं लेकिन केवल गुदगुदाने या मन बहलाने के लिए कही नहीं गई हैं। इन कहानियों में आप बनारस को तो ‘सुनेंगे’ ही मानव स्वभाव और सम्बन्धों के उन पहलुओं को ‘देख’ भी सकेंगे जो रोज़मर्रा के जीवन में सामने आते हैं लेकिन हमारी निगाह उन पर नहीं पड़ती। जिन लोगों को ये कहानियाँ आपके सामने लाती हैं उनमें बेगुनाह लोगों की ‘प्रापर फ़िज़ियोथेरैपी’ करनेवाले पुलिसवाले भी हैं हर हाल में जुआ खेलाने की सौगन्ध निभानेवाले गँड़ासा गुरु भी। लेकिन इस दास्तान में और लोग भी हैं—बड़ी-बड़ी बातें किए बिना ही बच्चों को संवेदनशील संस्कार देनेवाले डॉक्टर साहब। धंधे में नुक़सान उठाकर भी पड़ोसी धर्म निभानेवाले टेलर मास्टर सारे मोहल्ले को घर माननेवाले लोग और ‘मज़बूती का नाम महात्मा गांधी’ पर असली ज़िन्दगी में अमल करनेवाले चौधरी साहब। ऐसे चरित्रों के ज़रिए ये कहानियाँ साधारण व्यक्तित्वों की असाधारण क्षमता और मानवीय सम्बन्धों की मार्मिकता के साथ-साथ ताक़त के गुमान और दैनिक जीवन के पाखंडों को भी बहुत ही रोचक अन्दाज़ में रेखांकित करती हैं।
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