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About The Book
Description
Author
इधर के वर्षों में सूचना क्रांति निर्बाध पूँजीवाद और मनुष्यता के सिकुड़ते मानकों के बीच गांधी को लेकर विशेष किस्म का दिशाभ्रम है। एक ओर गांधी को आभासी विराटत्व दिया जा रहा है तो दूसरी ओर उन्हें ढहाने के औजारों को पैना भी किया जा रहा हैं। इनके बीच सत्य शुचिता सरोकार सरीऽे मानवीय मूल्य सवाल बनकर गांधी से रोज टकराते हैं। गांधी की शक्ल में हमसे टकराते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो गांधी का होना या न होना हमारे भीतर एक सवाल बनकर गूँजता रहता है। एक अदृश्य यकीन कहता है कि गांधी हमें ढहने से बचा लेंगे। गांधी को कोई गोली कोई मौत नहीं मार सकती। ‘गांधी जिंदा हैं।’ यही स्वर है इस नाटक का---।