ये समाज एक ऐसा मंच है जहां कोई न कोई नाटक हर समय होता रहता है जिसमें बहुत सारे चरित्र अपनी-अपनी भूमिका निभाते रहते हैं I और उनमें एक ऐसा पात्र भी होता है जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता और जाता भी है तो ना के बराबर - वो होते हैं हम स्वयं I इस मंच पर कभी हमारा अभिनय बहुत अच्छा होता है और कभी बहुत ख़राब - इतना ख़राब कि हम स्वयं की दृष्टि में ही गिर जाते हैं I कहते हैं कि दूसरों की नजरों में गिरा हुआ व्यक्ति उठ खड़ा होता है लेकिन ख़ुद की नज़रों में गिरा हुआ व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष कभी नहीं उठ सकता I शायद उसका अपराध बोध उसके मन की गहराइयों में अपनी पैठ बना लेता है और उस व्यक्ति को गहरे अवसाद में धकेल देता है I ऐसी ही कुछ कहानियों का संग्रह है ये पुस्तक - गिरा हुआ आदमी I
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