मूर्धन्य साहित्यकार गोपालराम गहमरी हिंदी साहित्य में उपेक्षित हैं। कई विधाओं में उन्होंने प्रचुर साहित्य लिखा लेकिन अपने देश के कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में वे कहीं नहीं हैं। न उनके संस्मरण न कहानियाँ न कविताएँ न उपन्यास न अनुवाद। उन पर एक जासूसी लेखक का ठप्पा लगाकर उनके पूरे रचनाकर्म से ही हमारे कथित आलोचकों ने किनारा कर लिया जैसे ये जासूसी उपन्यास घोर पाप हों। फिर धीरे-धीरे उन्हें जान-बूझकर बिसरा दिया गया; लेकिन अब फिर उनके साहित्य की खोज होने लगी है। फिर से लोग अब गहमरीजी की रचनाओं से परिचित होने को बेताब दिख रहे हैं। यह अच्छी बात है। राख के भीतर छिपी आग अब बाहर आ रही है। साहित्य पाठकों के भरोसे जिंदा रहता है आलोचकों के भरोसे नहीं। कबीर तुलसी रैदास अपनी रचनाओं के बूते जिंदा हैं आलोचकों के भरोसे नहीं। गोपालराम गहमरी अब पुस्तकालयों से बाहर आ रहे हैं। उनकी जासूसी कहानियों में रहस्य और रोमांच है; गुत्थियाँ हैं जिन्हें सुलझाने के रोचक प्रसंग भी हैं जो पाठक को बाँध लेंगे।