Hamare Yug Ki Sangharsh Katha
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About The Book

दिसम्बर महीने का आखिरी दिन, सुबह पांच बजे का समय था। कंपकंपाती ठंड पड़ रही थी। घने कोहरे का आलम यह था कि सामने का व्यक्ति और सङक किनारे खड़े पेड़ भी राहगीरों को दिखाई नहीं दे रहे थे। सड़क पर वीरानी छाई थी। इस पर चलने वाले इक्का-दुक्का राहगीरों को ऐसा प्रतीत होता मानो घने - सूनसान जंगल में अकेले भटक रहे हों और कहीं से कोई हिंसक पशु अचानक आक्रमण कर उसे अपने भूख का निवाला न बना डाले।
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