मैं एक एक साधारण इंसान हूँ किंतु मेरे गुरू की मझ पर अपार कृपा है। मैं अपने गुरू की वाणियों और उनकी भाव भंगिमाओं को जितना देखता सुनता और मनन करता हूँ उतना ही पाता हूँ कि शास्त्रों में जिस सत्ता का वर्णन ऋषियों ने परम सत्ता या परम शक्ति के रूप में किया है-वह वही है-हाँ वह वही है।अब यह बात दूसरी है कि अपनी इस अनुभूति के बावजूद मेरा अपने गुरू के साथ अभेद संबंध कायम हो सका है या नहीं। मैं अपनी ओर से देखता हूँ तो लगता तो यही है कि यह नहीं हुआ है-बाकी मेरे गुरू समझें। मैं उनके शरणापन्न हूँ और शरणापन्न ही रहना चाहता हूँ-जन्म जन्म। उनकी कृपा के अंतर्गत रहकर उनके गीत गाने मे जो सुख मुझे है उनके दासत्व में रहकर उनकी ओर जीवों की चित्तवृत्ति को मोड़ने में जो आनंद मुझे मिलता है-बस वही मेरा मोक्ष है वही मेरा वैकुण्ठ है। उनकी सेवा-पूजा ही मेरी योग साधना है और उनके द्वारा दिये गये जीवन का जीना ही मेरा तप है। बाकी वही जानें।
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