साल 1987; दिन 22 मई; समय तकरीबन आधी रात। गाजियाबाद से सिर्फ पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर मकनपुर गाँव की नहर के किनारे आजाद भारत का सबसे भयावह हिरासती हत्याकांड हुआ था। पी.ए.सी. ने मेरठ के हाशिमपुरा मुहल्ले से उठाकर कई दर्जन मुसलमानों को यहाँ नहर की पटरी पर लाकर मार दिया था। विभूति नारायण राय उस समय गाजियाबाद के पुलिस कप्तान थे। यह पुस्तक लेखक द्वारा उसी समय लिये गए एक संकल्प का नतीजा है जब वे धर्मनिरपेक्ष भारत की विकास-भूमि पर अपने लेखकीय और प्रशासनिक जीवन के सबसे जघन्य दृश्य के सम्मुख थे। साम्प्रदायिक दंगों की धार्मिक-प्रशासनिक संरचना पर गहरी निगाह रखनेवाले और ‘शहर में कर्फ़्यू’ जैसे अत्यंत संवेदनशील उपन्यास के लेखक विभूति जी ने इस घटना को भारतीय सत्ता-तंत्र और भारतवासियों के परस्पर सम्बन्धों के लिहाज से एक निर्णायक और उद् घाटनकारी घटना माना और इस पर प्रामाणिक तथ्यों के साथ लिखने का फैसला लिया जिसका नतीजा यह पुस्तक है। यह सिर्फ उस घटना का विवरण-भर नहीं है उसके कारणों और उसके बाद चले मुकदमे और उसके फैसले के नतीजों को जानने की कोशिश भी है। इसमें दुख है चिंता है आशंका है और उस खतरे को पहचानने की इच्छा भी है जो इस तरह की घटनाओं के चलते हमारे समाज और देश की सामूहिकता के सामने आ सकता है—घृणा अविश्वास और हिंसा का चहुँमुखी प्रसार। उम्मीद करते हैं कि इस किताब को पढ़ने के बाद हम एक सभ्य नागरिक समाज के रूप में अपने आसपास पसरते इस खतरे के प्रति सतर्क होंगे और इसे रोकने का संकल्प लेंगे जिसके कारण हाशिमपुरा जैसे कांड वैधता पाते हैं।
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