HINDI GAZAL KA AATMSANGHARSH ( हिंदी ग़ज़ल का आत्मसंघर्ष' )
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About The Book

हिंदी में ग़ज़ल जैसे जनप्रिय काव्यरूप की विकास-यात्रा के कई पड़ाव हैं । खुसरो कबीर भारतेंदु निराला त्रिलोचन शमशेर दुष्यंत और अदम । लेकिन यह सिलसिला यहीं आकर ठहर नहीं जाता बल्कि हिंदी की प्रगतिशील - जनवादी काव्य - परंपरा के साथ क़दमताल करते हुए आगे बढ़ता है । आज की हिंदी ग़ज़ल ऐशगाहों से नहीं बल्कि व्यापक सामाजिक संघर्षों से जुड़ी हुई है । कहना चाहिए कि सुपरिचित कवि और सजग समालोचक सुशील कुमार की यह महत्वपूर्ण कृति हिंदी ग़ज़ल की इसी विकास यात्रा उसके वस्तुगत आधारों और व्यापक आत्मसंघर्ष का विश्लेषण करती है । इसके लिए उन्होंने जिन ग़ज़लकारों को केंद्र में रखा है वे हैं दुष्यंत कुमार अदम गोंडवी शलभ श्रीराम सिंह रामकुमार कृषक डी एम मिश्र और बल्ली सिंह चीमा । इसी संदर्भ में उन्होंने चार स्त्री ग़ज़लकारों की रचना - संस्कृति की भी पड़ताल की है । इनमें हैं : प्रभा दीक्षित डॉ भावना मृदुला अरुण और इंदु श्रीवास्तव । इन सभी ग़ज़लकारों के रचनात्मक संघर्ष से गुज़रते हुए सुशील कुमार की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि किसी भी जीवित विधा को उसकी अपनी सुदीर्घ काव्य- परंपरा से काटकर नहीं देखा जाना चाहिए । अनायास नहीं कि ऐसा करते हुए लेखक को हिंदी ग़ज़ल की छद्म प्रगतिशीलता से भी टकराना पड़ा है । यहां वे इस काव्यरूप की परंपरागत रूमानी संस्कृति से जन - संस्कृति तक की यात्रा करते हुए उन जड़ताओं पर भी प्रहार करते हैैं जिनके चलते यह मूल्यवान काव्यविधा हिंदी के प्रगतिशील - जनवादी काव्य - इतिहास का हिस्सा नहीं बन पाई । इसीलिए सुशील जी हिंदी ग़ज़ल में आज भी मौजूद अभिजनवादी सोच - सरोकार और उसके मनोरंजनवादी कलावाद को नकारते हुए कहते हैं कि यह कविता - विधा अब दरबारी बंधनों से मुक्त होकर समाजशास्त्रीय आलोचना के वृत्त में शामिल हो चुकी है जिस पर ध्यान दिया जाना नितांत आवश्यक है । उल्लेखनीय है कि सुशील कुमार का अपना आलोचकीय अंदाज़ उनकी भाषा और शिल्प सभी कुछ पारदर्शी है । इसीलिए उसमें तर्कपूर्ण साहसिकता है तो साफगोई भी । विश्वास है लेखक की यह कृति ग़ज़ल विधा को और अधिक गहराई से जानने वाले पाठकों और शोधार्थियों के लिए अनमोल सिद्ध होगी ।
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