*COD & Shipping Charges may apply on certain items.
Review final details at checkout.
₹459
₹795
42% OFF
Hardback
All inclusive*
Qty:
1
About The Book
Description
Author
सृष्टि अपने आप में सबसे खूबसूरत और समर्थ रंगमंच है और हम इस महाकाव्यात्मक सृष्टि-नाटक की चलती-फिरती पात्र-सृष्टि। काल-गति के अनुरूप साहित्य की विभिन्न विधाएँ मनुष्य की अन्तश्चेतना को व्याख्यायित-विश्लेषित करती सुख-दुखात्मक संवेदनशील क्षणों को युगानुरूप भंगिमाओं में तराशती रही हैं। फिर भी मनुष्य अस्मिता में बहुत कुछ ऐसा है जो अनेक विधाओं के रहते हुए भी उसमें नहीं अटता। उसके लिए विशिष्ट विधा का निर्माण स्वयंमेव चक्रधारी समय ही करता है जो मनुष्य के अंदर के कीर्तन और कंकाल नर्तन को बांध सके। काल की तक्षक स्थितियाँ तीव्रता से बदलती रहीं और मनुष्य के अंदर की अजान-आरती से छल करती वह उसे संघर्ष और जिजीविषा के लोक मंत्र थमाती रहीं। यह काल का अभिनय नहीं जीवन्तता थी जिसने स्वयं को पहचानने के लिए सृष्टि को ही चलते-फिरते साक्षात् लोक-मंच में परिवर्तित कर दिया। साहित्य की अन्य विधाओं ने भी मनुष्य को देवदारु की तरह ऊंचा उठाया लेकिन नाटक ने उसके भीतरी द्वन्द्व को ख़ासतौर से तराशा उसे फैलने से रोका उसे बांधा काल-धार पर चढ़ाया मथा निचोड़ा जोड़ा रस्सी सा बंटा और संघर्ष-जिजीविषा की आधिकारिक कथा का नायक-खलनायक बना दिया। जीवन के स्थायी भाव को सुरक्षित-संरक्षित रखने के लिए कालानुरूप अपनी भंगिमाएं निरन्तर बदलीं और आज बीज से वट बनकर भी अपनी शाखाओं-प्रशाखाओं का विस्तार कर रहा है। नाट्य-साहित्य की विशेषज्ञ अध्येता अनुसंधात्राी डॉ. वीणा गौतम ने इसी चक्रधारी समय की बहुत बारीक कताई की है। आज हम जिस रंग-परिवेश में जी रहे हैं उसमें हमारे जीवन-संदर्भों और मूल्यों में तेजी से उथल-पुथल हो रही है। संप्रेषण के नए माध्यमों के प्रभाव से जीवन-प्रस्तुति शैलियों में भी आत्यान्तिक परिवर्तनों का दौर चल रहा है। हमें इतिहास बोध तथा सांस्कृतिक चेतना को कोरे दर्शन या उपदेश से अलग कर नाटकीय सार्थकता एवं संस्कृतिजन्य दृष्टि से देखना होगा। इस ग्रंथ-रचना के मूल में यही दृष्टि कार्यरत है। डॉ. वीणा गौतम की मानक आलोचन दृष्टि ने नाटकों के माध्यम से काल-फांकों को आर-पार देखा है। इनके पारदर्शी चिंतन मूल्यों में मनुष्य यातना का पूरा काल बोध जीवित है। इनके दृष्टि-मंच पर नाटक की समूची देह भीतरी गूँज के साथ रोती-हँसती है और थरथराता काल मनुष्य वजूद में अभिनय करने लगता है। इनके शब्द अभिकल्पन में साक्षात नाटक उतर आता है। इनकी नाट्यलोचना का यही मर्म है।