*COD & Shipping Charges may apply on certain items.
Review final details at checkout.
₹359
₹495
27% OFF
Hardback
All inclusive*
Qty:
1
About The Book
Description
Author
नाट्यालोचन की परंपरा का परिप्रेक्ष्य लेकर हिंदी नाट्यालोचन का आकलन एक महत्वपूर्ण प्रयास है। मुनि भरत ने ‘नाटक’ को उदात्त संस्कृति शिक्षा का माध्यम माना है। मनुष्य का मन बुद्धि चेतना और विवेक विरेचित होकर मानवीय हो सकें यह विधान नाटक में है। नाट्य समस्त कला रूपों का समावेशी स्वरूप ही नहीं है बल्कि इसके पास जीवन को ‘कला’ के महान अवबोध में बदल सकने की भी क्षमता है। ‘नाटक’ के समान ही नाट्यालोचन के प्रतिमान का आदि ग्रंथ भी ‘नाट्यशास्त्र’ ही है। नाट्यशास्त्र ने नाट्य में जिस कला संपूर्णता की संकल्पना की है। उसके भीतर देशकाल के अनुरूप भावी परिवर्तनों और प्रयोगशीलताओं की भी अपार संभावनाएं हैं। यह एक गतिशील शास्त्र है जिसका गहरा संबंध समय और समाज से है। मनुष्य की प्रवृत्तियों को संश्लिष्टता में समझकर वह नाट्य का नियमन करता हुआ दिखाई देता है। इस शास्त्रीय चिंतन के भीतर कला की अभिनव भूमिकाओं के प्रति काव्यशास्त्रीय आकलन और संकलन की लंबी परंपरा बनी जिसका उद्देश्य नाट्य सहित काव्य के सौष्ठव और उद्देश्य को कला की संपूर्णता में विश्लेषित करना है। प्रस्तुत पुस्तक ने इस परंपरा को समझ कर हिंदी नाट्यालोचन को समझने का प्रयत्न किया है तथा नाटक और रंगमंच की परस्परता को समझ कर नाट्य समीक्षकों के योगदान को रेखांकित किया है। इस संदर्भ में नाटक जैसी साहित्यिक विधा के स्वरूप को समझ कर उसके आरंभ विकास और परिवर्तन की विशिष्टताओं को भी रेखांकित किया है। ज़ाहिर है कि हिंदी नाटकों की शुरुआत भारतेंदु से हुई और नाट्यालोचन की शुरुआत भी उन्हीं से देखी गई है। भारतेंदु हिंदी साहित्य के ऐसे पुरोधा हुए जिन्होंने भाषा और साहित्य को तथा उसके सौंदर्यबोधीय स्वरूप को भी विकसित करने पर जोर दिया। : प्रोफेसर चंद्रकला त्रिपाठी