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भारतेंदु और नाटक साहित्य के अंतर्संबंधों पर विचार करते हुए अक्सर यह प्रश्न सामने आता रहा है कि कविताएँ लिखते हुए गद्य की तरफ़ प्रवृत्त होने वाले भारतेंदु ने आखिर नाटक लेखन पर इतना जोर क्यों दिया कि वे मूल के साथ-साथ अनुवाद भी करने लगे? इसका उत्तर यह कहकर दिया जा सकता है कि भारतेंदु अपनी बात (स्वतंत्रता और भ्रातृत्व जैसे विचार) को बड़े जन-समूह तक प्रभावकारी ढंग से और तेजी से पहुंचाना चाहते थे इसलिए उन्होंने नाटक विधा को चुना। साथ ही उन को यह पीड़ा भी रही होगी दुनिया को नाट्यशास्त्र जैसा महान ग्रंथ देने वाले भारत में नाट्य विद्या की ऐसी दुर्दशा आखिर क्योंकर हुई? और पारसी रंगमंच द्वारा कैसे अपने व्यापारिक लाभ और सस्ते मनोरंजन के चलते जनता के विचारों को हल्का एवं दूषित किया जा रहा है। इन्हीं सब वजहों के चलते भारतेंदु को काव्य विधा के साथ-साथ नाटक के क्षेत्र में भी उतरना पड़ा। अब सवाल आता है कि यदि भारतेंदु और उनके युग के अन्य लेखकों के लिए नाटक लिखना इतना ही अनिवार्य बन गया था तो उन्होंने मौलिक नाटकों के साथ-साथ अनूदित नाटकों पर इतना ज़ोर क्यों दिया? ध्यातव्य हो कि भारतेंदु युग में संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी से खूब नाटक अनूदित किए गए हैं। यह समझने के लिए कि उस दौर के साहित्य लेखन में अनुवाद इतना प्रबल माध्यम क्यों और कैसे बन गया, इसके दो कारण कारण यहाँ स्पष्ट रूप दिखाई देते हैं. पहला आंतरिक और दूसरा बाह्य। आंतरिक का सम्बंध हिंदी साहित्य के अंतर्गत रचे जाने वाले साहित्य से है।