हमने 'अहिंसा परमोधर्मः धारण करके अपनी दिग्विजय से हाथ खींच लिये; परंतु दूसरों ने हमपर आक्रमण करना न छोड़ा। हम किसी की हिंसा नहीं करना चाहते; परंतु हमारी भी तो कोई हत्या न करे। तथापि हुआ यही। हमारी अतिरिक्त करुणा ने हमें दूसरों के समक्ष दुर्बल बना दिया। हमने हथियार रखकर उठने-बैठने का स्थान धीरे से झाड़ देने के लिए एक प्रकार की मृदुल मार्जनी धारण कर ली जिसमें कोई जीव हमारे नीचे न दब जाए; परंतु दूसरों ने हथियार न रखे और स्वयं हमीं दबा लिये गए। हमारी गोरक्षा की अति ने विपक्षियों की सेना के सामने गायों को खड़ा देखकर शस्त्र-संधान करना स्वीकार न किया; परंतु इससे न गायों की रक्षा हुई और न हमारी जो उसके रक्षक थे। विधर्मियों ने गाँव के एकमात्न कुएँ में थूक दिया बस वह गाँव ही अहिंदू हो गया! ऐसी अवस्था में कवित्व हमें क्या उपदेश देगा? उपदेश देना उसका काम नहीं। न सही; परंतु आपत्तिकाल में मर्यादा का विचार नहीं रहता। और क्या सचमुच कवित्व उपदेश नहीं देता? भोजन का उद्देश्य क्षुधानिवृत्ति और शरीर पोषण है। उससे रसना का आनंद भी मिलता है; परंतु हमारी रखना लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि हम भोजन में बहुधा उसी का ध्यान रखते हैं। फल उलटा होता है। शरीर का पोषण न होकर उलटा उसका शोषण होता है क्योंकि पथ्य प्रायः रुचिकर नहीं होता। शरीर के समान ही मन की भी दशा समझिए। मन महाराज तो पथ्य की ओर दृष्टि भी नहीं डालना चाहते। लाख उपदेश दीजिए जब तक पथ्य मधुर किंवा रुचिकर नहीं होता तब तक वे उसे छूने के नहीं। कवित्व ही उनके पथ्य को मधुर बनाकर परोस सकता है।-इसी पुस्तक से
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