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About The Book
Description
Author
ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सांप्रदायिक विद्वेष का जहर बो कर ‘राज’ करने की परियोजना ने भारतीय समाज में ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के जन्म और उभार की परिस्थितियाँ तैयार की । भारत के विविध-बहुल-बहुरंगी सांस्कृतिक मन-मिजाज वाले समाज को बहिष्कारी-एकाधिकारी-समरस ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व के ध्वजवाहक समाज में रूपांतरित करने के प्रयास शुरू हुए । इस ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म का प्राधिकार वेद और ब्राह्मण और भौतिक आधार समाज की जातिगत संरचना थी । विरोधियों को जातीय संस्तरिकता की सबसे निचली पायदानों पर शोसित-उत्पीड़ित होते रहने के लिए अभिशप्त रखा गया । ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में विदेशी शासकों और ब्राह्मणों के गँठजोड़ ने भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम व इसाइयत के अनुयायियों के अतिरिक्त सारे भारतवासियों पर ‘हिन्दू’ पहचान थोप दिया । बीसवीं सदी में हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस अभियान को आगे बढाते हुए इतिहास के शातिर-सचेत पुनरप्रस्तुतिकरण के जरिए अतीत, अधिकांशतः ‘गढ़े गये अतीत’ का चयनित व पूर्वाग्रही निरूपण किया ।**हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के प्रस्थापक सिद्धांतकार सावरकर के सांस्कृतिक-राजनीतिक विमर्श के दो प्रमुख तत्व थे: (1) प्राचीन हिन्दू समुदाय भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीनतम ज्ञात देशज सभ्यता की निर्मिति करता है और बिना किसी रक्त-वर्ण संकरण के, भारत भूमि का सहस्त्राब्दियों से मूल निवासी है; और (2) इस्लाम आमूल-चूल रेडिकल विदेशी विचारधारा है जो हिन्दू समुदाय के साथ हमेशा स्थाई और मूलभूत असमाधेय संघर्ष में रहेगी । इस्लाम और भारतीय मुसलमान सर्वाधिक खतरनाक संप्रदाय और अपने-आप में अलग-थलग, बंद समुदाय है ।