पुष्पा तिवारी की इस किताब को मैं हमारे रुढ़ नज़रिए वाले इस संसार में धीरे से प्रवेश कर पूरा जगह घेर लेने वाली चतुर सी तरतीब मानती हूं।जीवन के सच्चे नज़दीकी अनुभवों के भीतर घूमती गतियों को थहाने की उनकी रचनात्मक निरंतरता की क़ीमती कड़ी है यह किताब हम सैंडविच पीढ़ी के लोग इस अर्थ में किताब मौजूदा दौर की बेहद बदली सी पीढ़ी से आती चुनौतियों की थाह लेती है और पिछली पीढ़ी को गुज़री हुई संभावना हीन पीढ़ी मानने से इंकार करती है। इस किताब में जीवन और संबंधों के भीतर बाहर घूमते जीवन प्रसंग चुटीले शीर्षकों और ज़िंदा मुहावरों में होकर मध्यवर्गीय स्त्री की दुनिया के कई नए हिस्सों और किस्सों में प्रवेश करते हैं। ये कई कई स्त्रियां हैं और इन सबकी आत्मपर्याप्तता की ग़ज़ब तफसीलें हैं। कई गृहस्थियों की कतरब्योंत है हिसाब किताब वाले सिलसिले हैं।पत्नी के निजी खर्चों के प्रति बेपरवाह पतियों से सामंजस्य सहित अपनी ज़रुरत भर धन के जुगाड़ वाली पत्नियों की तरकीबें हैं। इस किताब में पुष्पा तिवारी ने अपनी मां की विलक्षणता को ऐसी तटस्थता से उभारा है कि हमें एक बड़ी सचेत कर्मठ और साहसी स्त्री मिलती है जिसका सबसे उज्वल रुप आत्मविश्वास है।वह बदलती हुई दुनिया की हर नवीनता के प्रति सजग ही नहीं है बल्कि उसके जरिए अपने जीवन को गतिशीलनया और समर्थ बनाने के लिए सक्रिय भी है। यहां सबसे खूबसूरत पक्ष यह है कि यह सब कुछ बहुत सहज होकर आया है। पीढ़ियों के जीवन से लग कर चली इन कथाओं में जीवन का व्यावहारिक पक्ष बहुत गहरा होकर उद्घाटित है। : ***चंद्रकला त्रिपाठी****
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