लम्हों का जो सफ़र शुरू किया था आज वो रफ़्तार पकड़ चुका है। जिस रफ़्तार से ज़िंदगी चल रही है उसी रफ़्तार से लम्हों का सिलसिला भी बरकरार है। जैसे कि ज़िंदगी हमेशा एक ही रफ़्तार में नहीं चलती इसी तरह लम्हों की तरबियत में बदलाव भी ज़ाहिर सी बात है और जायज़ भी है। लम्हें चलते चलते आज़ाद हुए नज़रबंद भी हुए फिर इंतज़ार में चलने लगे। और चलते चलते कई एहसास हुए जिन्हें ग़ज़लों गीतों और नज़्मों के रूप में पिरोकर एक और किताब इंतज़ार लम्हें पेश-ऐ-नज़र है। तज़ुर्बे जिंदगी का हिस्सा माने जाते हैं। सही मायने में जाना जाए तो तजुर्बों से ही ज़िंदगी बनती है। और तजुर्बों से ही लम्हों का आग़ाज़ होता है। सो जैसे तजुर्बे वैसे लम्हें और वैसे ही अल्फाज़ की कड़ियां। मुझे उम्मीद है कि इंतज़ार लम्हें पढ़ते हुए कई तरह के एहसास भी होंगे जिन्हें समझ पाना भी बेहद आसान होगा। जब इंतज़ार पूरा होता है तो लम्हें खिलखिलाने लगते हैं और इन खिलखिलाते हुए लम्हों को भी जल्दी ही अल्फाज़ की कड़ी में पिरोया जायेगा।
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