प्रिंट मीडिया के पत्रकार रमेश कुमार ‘रिपु’ देश के कई बड़े मीडिया हाऊस में प्रमुख पदों पर काम करते हुए छत्तीस साल पत्रकारिता में गुज़ार दिए। इनकी कहानियों की रेंज़ शंख बांसुरी जैसी है। स्त्री पुरुष के रिश्तों की बुनावट में नई भाषा की महक है। इश्क़ के माथे पर बेवफ़ाई के पसीने को देखकर मुहब्बत अब कोयले की तरह जलती नहीं। क्यों कि शहरी भारत में पुरुष ही नहीं महिलाओं का भी दिल मांँगे मोर..। इस क़िताब की कहानी कई घरों की याद दिलाती है। कामयाब इश्क़ गुड़ सा मीठा हैतो नाकाम मुहब्बत इमली जैसी खट्टी । चूंकि वर्जनाएँ तोड़ने का दौर है । इसलिए ''इश्क की हरी पत्तियां'' के अफ़साने इससे जुदा नहीं हैं। प्यार मुहब्बत और इसके अंदाज वक़्त के साथ बदलते गए और उसकी कहानियां भी। बावजूद इसके ढाई आखर का जादुई स्पर्श और रेशम सी सरसराहट नहीं गई। कच्चे दूध-सी मुहब्बत हो या फिर पके धान की खुशबू सा प्यारदोनों जगह दिल के चूल्हें में इश्क़ का पानी खौल रहा है। फिर भी स्त्रीवादी नज़रिए से पुरुष और महिलाएँंअपने रिश्ते को चटपटा बनाने आपस में बातें कर रहे हैं।’’
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