ग़ालिब अपने जमाने में मीर तक़ी मीर के काफ़ी चाहने वालों में थे। इन्होने उनके बारे में भी काफ़ी लिखा है। ज़िदगी के इकहत्तर साल के लम्बे सफर में ग़ालिब ने उर्दू और फारसी की बेइनतहा खिदमत कर खूब शोहरत कमाया। अपनी तेजधार कलम की बदौलत उन्होंने उर्दू शायरी को नया मुकाम नई ज़िन्दगी और रवानी दी। अगर बात उर्दू अदब की हो और जिक्र ग़ालिब का ना हो तो बेमानी है। अदब की दुनियाँ में जहाँ शेक्सपीयर मिल्टन टैगोर तुलसीदास का जो मुकाम है ग़ालिब भी वहीं नुमाया हैं। उनकी दीवान विश्व-साहित्य के लिए अनमोल धरोहर है। उर्दू अदब में भले ही अनकों शायर हुये हों मगर ग़ालिब के कलाम पढ़ने व सुनने वालों के दिलों की कैफ़ियत बदल देती है। ग़ालिब के कलाम आज भी गंगा की रवानी की तरह लोगों के जेहन व ज़ुबान पर कल-कल करती हुई बह रहे हैं तथा हमेशा लोगों के मष्तिष्क पटल पर ज़िन्दा रहेंगी।