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पता नही क्यों सारे भराव के बावजूद कुछ खाली-खाली-सा हमेशा साथ ही रहा मेरे। जो तमाम कोश़िश़ों के बाद भी ख़न-ख़न करने से बाज़ नही आता है। इस ख़ालीपन की आवाज़ से बेतरहा ख़ौफ आता रहा है मुझे।उससे पार पाने के लिये मैं उससे ही बातें करने लगती हूँ। शायद उसे पलटकर डराने के लिहाज़ से या शायद अपने डर से पिंड छुड़ाने की बाबत और यहीं मैं अपनी कमजोर नस उसे थमा देती हूँ। वो मेरे अंदर छुपे बैठे अकेलेपन को दबोच लेता है बाहर की भीड़-भाड़ का फायदा उठाकर।वो हद दर्ज़ा बातूनी कि... उसका जी ही नही भरता बातों से। कई-कई तरीकों से मुझसे लगातार संवाद करता रहता है। चुप होने का नाम ही लेता। ऐसा फ़ितूरी!!उसका मन रखते-रखते मैं जो भी कहती चली गई वो कहा भर नहीं रह गया एक वक्त के बाद। मैं उसे ही जीने लगी। मुझे इस कहने-सुनने में एक नशा-सा आने लगा जिसे मैं घूँट-घूँट पीने लगी।यह नशा ऐसा तारी हुआ कि अब मैं बारम्बार उस सुरूर का जश्न मनाने अपने उस साथी खालीपन के साथ जा बैठती हूँ। लेकिन अब उसके साथ देने की एक शर्त होती है कि जितनी भी देर मैं उसके साथ होऊँगी उस दौरान जो भी बातें होंगी वो साथ-साथ मैं पन्नों पर उतारती जाऊँगी।उसका साथ पाने का जुनून इस कदर मेरे सिर पर सवार हुआ कि मैं दीवानी-सी सब मानती चली गई। वो हावी होता गया मुझ पर मैं हल्की होती गई उस पर।हमारी महफ़िल अक्सर जमती रही। मेरा रीतापन बेलाग बेखौफ़ पूरी बेबाकी से बदस्तूर उन्माद की तरह बाहर आकर अपना रंग दिखाता रहा। अंदर का सब अच्छा-बुरा इस किताब के पन्नों पर ज्यों का त्यों छितर गया है।गीत-ग़ज़ल-कविता ना जाने ये क्या है...जाने भी दीजिये!क्यूँकि मैं कवि नहीं क्यूँकि मैं होश में नहीं...मुझे माफ़ कीजिये!!कुछ जाम छलकाएँ हैं तन्हाई की सुराही से... उनका मज़ा लीजिये!इस पार मैंउस पार जाने क्या होगा...
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