Jeevan Jine Ki Kala (जीवन जीने की कला)+Sambhog Se Samadhi Ki Or (संभोग से समाधी की ओर : जीवनऊर्जा रूपांतरण का विज्ञान  ओशो )+YOGI KATHAAMRIT


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About The Book

जीवन की कला से मेरा यही प्रयोजन है कि हमारी संवेदनशीलता हमारी पात्रता हमारी ग्राहकता हमारी रिसेप्टिविटी इतनी विकसित हो कि जीवन में जो सुंदर है जीवन में जो सत्य है जीवन में जो शिव है वह सब-वह सब हमारे हृदय तक पहुंच सके। उस सबको हम अनुभव कर सकें लेकिन हम जीवन के साथ जो व्यवहार करते। हैं उससे हमारे हृदय का दर्पण न तो निखरता न निर्मल होता न साफ होता; और गंदा होता और धूल से भर जाता है। उसमें प्रतिबिंब पड़ने और भी कठिन हो जाते हैं। जिस भांति जीवन को हम बनाए हैं-सारी शिक्षा सारी संस्कृति सारा समाज मनुष्य के व्यक्तित्व को ठीक दिशा में नहीं ले जाता है। बचपन से ही गलत दिशा शुरू हो जाती है और वह गलत दिशा जीवन भर जीवन से ही परिचित होने में बाधा डालती रहती है। पहली बात जीवन को अनुभव करने के लिए एक प्रामाणिक चित्त एक शुद्ध दिमाग चाहिए। हमारा सारा चित्त औपचारिक है फार्मल है प्रामाणिक नहीं है। न तो प्रामाणिक रूप से कभी प्रेम न कभी क्रोध न प्रामाणिक रूप से कभी हमने घृणा की । है न प्रामाणिक रूप से हमने कभी क्षमा की है। हमारे सारे चित्त के आवर्तन हमारे सारे चित्त के रूप औपचारिक हैं झूठे हैं मिथ्या हैं। अब मिथ्या चित्त को लेकर जीवन के सत्य को कोई कैसे जान सकता है? सत्य चित्त को लेकर ही जीवन के सत्य से संबंधित हुआ जा सकता है। हमारा पूरा दिमाग हमारा पूरा चित्त हमारा पूरा मन मिथ्या और औपचारिक है। इसे समझ लेना उपयोगी है। सुबह ही आप अपने घर के बाहर आ गए हैं और कोई राह पर दिखाई पड़ गया है और आप नमस्कार कर चके हैं। और आप कहते हैं कि उससे मिलके बड़ी खुशी हुई आपके दर्शन हो गए लेकिन मन में आप सोचते हैं कि इस दुष्ट का सुबह ही सुबह चेहरा कहां से दिखाई पड़ गया । यह अशुद्ध दिमाग है यह गैर-प्रामाणिक मन की शुरुआत हुई। चौबीस घंटे हम ऐसे दोहरे ढंग से जीते हैं तो जीवन से कैसे संबंध होगा? बंधन पैदा होता है दोहरेपन से। जीवन में कोई बंधन नहीं है।+हंस बनने का अर्थ हैः मोतियों की पहचान आंख में हो मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे! कुछ और से राजी मत हो जाना। क्षुद्र से जो राजी हो गया वह विराट को पाने में असमर्थ हो जाता है। नदी-नालों का पानी पीने से जो तृप्त हो गया वह मानसरोवरों तक नहीं पहुंच पाता_ जरूरत ही नहीं रह जाती।
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