सम्पूर्ण गीता का प्रवचन देने के पश्चात् भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सतर्क करते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन मानव जगत में जो तप नहीं करता भक्ति नहीं करता सुनने की इच्छा भी नहीं रखता और मेरी निंदा करता है उससे तुम कदापि यह युद्ध विद्या मत कहना कुछ ऐसा ही प्रेरणापूर्ण भाव का प्रादुर्भाव जीवन जीवन्त की रचना करते समय मेरे मानस पटल पर अंकुरित हुआ कि जिसका हृदय संवेदना शून्य निरस है हिन्दी साहित्य के अध्ययन मनन में जिसकी अभिरूचि नहीं है। कविता के मर्म को समझने के प्रति जो उदासीन हैं और दिव्य जी के चतुर्दिक फैली हुई व्यापक प्रशस्ति उनके प्रति जो मन में ईर्ष्या के भाव रखते हैं। उनके लिए यह कृति अर्थहीन है। अनुपयोगी है जग्रास्थ है क्योंकि इस पुस्तक में दिव्य जी का अनुपम रचना शक्ति गम्भीर अध्ययन से उपार्जित अथाह ज्ञान असीमित प्रतिभा सात्विकता से आप्नावित ईशोपासना निष्काम भक्ति नवीन छन्दों के सृजन में तल्लीन उन्हें साहित्यकारों के बीच में अनुमोदन और स्वीकृति कराने में अदम्य उत्साह अनुपम राष्ट्रभक्ति निस्वार्थ मानव सेवा त्यागमय जीवन की अकाट्य झांकी प्रस्तुत की गयी है। यत्र तत्र बिखरे हुए समों एवं नैतिक गुणों को एकत्रित करके सुरभित सुदर्शन नयनाभिराम चिंत्ताकर्षक प्रिय वाटिका की भांति सुसज्जित करके दिव्य जी के आद्योपांत जीवन की चर्चा की गयी है। जो ज्ञान पिपासु पाठकों का सरस और सरल शिक्षा से सुसंस्कृत बनाने में पूर्ण सक्षम एवं प्रभावी हैं।
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