आज के दिखावे और तड़क-भड़क में खोते जन सैलाब के बीच समाज के आर्थिक निर्बलों की पीड़ा पर शायद ही नजर जाती है। शहर के बेतहाशा खर्चीले आयोजनों में एक ओर पैसे की परवाह नहीं की जाती वहीं किसी गरीब से निकृष्ट काम कराने के बाद भी उसकी उचित मजदूरी तक नहीं दी जाती। मेहमानों की प्लेटों में सौ आदमी के भोजन भर जूठा फेंक दिया जाता है पर जिसने उस आयोजन में अपना योगदान दिया है उसे भरपेट भोजन तक देना आयोजकों को स्वीकार नहीं होता। अपनी चौथी कहानी संग्रह ‘जूठे गुलाब जामुन’ पाठकों को उपलब्ध कराते हुए मैं अपार हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। अपने आसपास के क्रियाकलापों एवं अच्छी-बुरी घटनाओं को संजीदगी के साथ देखने का नजरिया ही मेरी लेखनी की ताकत है। इस कहानी संग्रह में संकलित चौबीस कहानियाँ किसी न किसी रूप से ग्रामीण परिवेश से जुड़ाव रखती हैं और कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हमारे इर्द-गिर्द मौजूद व्यक्तित्व के चित्रण का प्रयास भी करती हैं।‘जूठे गुलाब जामुन’ पार्टी फंक्शन में जूठी प्लेट उठाने वाले मशालची के रूप में काम करने वाले असहाय बालकों की कहानी है जिन्हें बारह घंटे जिल्लत झेलने के बाद मजदूरी के नाम पर अधिकतम तीन सौ रुपये और भोजन नसीब होता है और साथ में गुलाब जामुन चोरी का इल्जाम थोपते हुए दंड भी मिलता है। इस कहानी का अंत संवेदनशील व्यक्ति को काफी कुछ सोचने को विवश करता है।
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