Kaal Krandan

About The Book

काल-क्रंदन जीवन के प्रथम प्रहर की हृदयाभिव्यक्तियों (1972 से 1976 तक) के ‘आर्त-गान’ के बाद 1979 से 1990 तक के द्वादश वर्षीय काल-खण्ड में मैंने जो क्रंदन किया था उसे मैने कविता कहा और उन कविताओं का ‘कालरेखʼ नाम मैंने चुना था; क्योंकि काल की छाती पर 12 वर्षों तक मैं जो घिसटता रहा था उस लकीर पीटने को ‘कालरेख’ कहना ही मुझे रुच रहा था। परन्तु कुछ काव्यात्मक स्फुरणा के वश कुछ काल-अंतराल के प्रभाववश मैं अब इसे ‘काल-क्रंदन’ ही कहना अधिक समीचीन समझ रहा हूँ। साहित्य -- और इसीलिए कविता भी -- जीवन के मूल की अर्थात् सत्य की खोज है: सत्य की परख यथार्थ की परख! इसमें सब कुछ सुनने-सुनाने गाने-गवाने ही योग्य है ऐसा दावा मैं नहीं करता। किन्तु क्या पढ़ने-पढ़ाने योग्य है और क्या नहीं इसका निर्णय भी तो मैं नहीं कर सकता क्योंकि इसका कण-कण मेरा नितांत निजी सच है। इसमें कितना किस और किसी का भी सच प्रस्तुत है यह निर्णय उन्हीं पर!
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