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About The Book
Description
Author
About the Book: काल-क्रंदन जीवन के प्रथम प्रहर की हृदयाभिव्यक्तियों (1972 से 1976 तक) के ‘आर्त-गान’ के बाद 1979 से 1990 तक के द्वादश वर्षीय काल-खण्ड में मैंने जो क्रंदन किया था उसे मैने कविता कहा और उन कविताओं का ‘कालरेखʼ नाम मैंने चुना था; क्योंकि काल की छाती पर 12 वर्षों तक मैं जो घिसटता रहा था उस लकीर पीटने को ‘कालरेख’ कहना ही मुझे रुच रहा था। परन्तु कुछ काव्यात्मक स्फुरणा के वश कुछ काल-अंतराल के प्रभाववश मैं अब इसे ‘काल-क्रंदन’ ही कहना अधिक समीचीन समझ रहा हूँ। साहित्य -- और इसीलिए कविता भी -- जीवन के मूल की अर्थात् सत्य की खोज है: सत्य की परख यथार्थ की परख! इसमें सब कुछ सुनने-सुनाने गाने-गवाने ही योग्य है ऐसा दावा मैं नहीं करता। किन्तु क्या पढ़ने-पढ़ाने योग्य है और क्या नहीं इसका निर्णय भी तो मैं नहीं कर सकता क्योंकि इसका कण-कण मेरा नितांत निजी सच है। इसमें कितना किस और किसी का भी सच प्रस्तुत है यह निर्णय उन्हीं पर! About the Author: ‘विदेह’ अरविन्द कुमार 6 अप्रैल 1957 को जन्मे एक छोटे से बसेरे से आए हुए अत्यंत अभावग्रस्त माता-पिता की संतान जिन्हें खाने-कमाने का तो शऊर ख़ैर नहीं था किंतु जो उच्च आदर्शों के साथ जीते थे और व्यवसाय के नाम पर अध्यापन या ट्यूशन देकर आजीविका कमाने की कोशिश करते थे ‘विदेह’ अरविन्द कुमार भौतिकी में स्नातकोत्तर हैं साथ ही एक वरिष्ठ बैंकर भी रह चुके हैं। उनके शौक़ों में पढ़ाई - चाहे वह हिंदी साहित्य हो चाहे अंग्रेज़ी लिटरेचर या कुछ-कुछ संस्कृत साहित्य - मुख्य है जिसमें वह विश्व-साहित्य को प्राथमिकता देते हैं। उनकी रचनाएँ ‘कादम्बिनी’ जैसी लब्ध-प्रतिष्ठ पत्रिकाओं में काफ़ी पहले छप चुकी हैं और उनके अन्य लेख एवं कविताएँ अन्य हिंदी अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं।