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About The Book
Description
Author
This combo product is bundled in India but the publishing origin of this title may vary.Publication date of this bundle is the creation date of this bundle; the actual publication date of child items may vary.कबीर अपने को खुद कहते हैं : कहै कबीर दीवाना। एक-एक शब्द को सुनने की समझने की कोशिश करो। क्योंकि कबीर जैसे दीवाने मुश्किल से कभी होते हैं। अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। और उनकी दीवानगी ऐसी है कि तुम अपना अहोभाग्य समझना अगर उनकी सुराही की शराब से एक बूंद भी तुम्हारे कंठ में उतर जाए। अगर उनका पागलपन तुम्हें थोड़ा सा भी छू ले तो तुम स्वस्थ हो जाओगे। उनका पागलपन थोड़ा सा भी तुम्हें पकड़ ले तुम भी कबीर जैसा नाच उठो और गा उठो तो उससे बड़ा कोई धन्यभाग नहीं है। वही परम सौभाग्य है। सौभाग्यशालियों को ही उपलब्ध होता है। ओशो पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: भाव और विचार में कैसे फर्क करें? जीवन में गहन पीड़ा के अनुभव से भी वैराग्य का जन्म क्यों नहीं? समाधान तो मिलते हैं पर समाधि घटित क्यों नहीं होती? भक्ति-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान है? समर्पण कब होता है? कबीर की बातें उलटबांसी क्यों लगती है?'कस्तूरी कुंडल बसै।'<br>कबीर ने बड़ा प्यारा प्रतीक चुना है। जिस मंदिर की तुम तलाश कर रहे हो वह तुम्हारे कुंडल में बसा है; वह तुम्हारे ही भीतर है; वह तुम ही हो। और जिस परमात्मा की तुम मूर्ति गढ़ रहे हो उसकी मूर्ति गढ़ने की कोई जरूरत ही नहीं तुम ही उसकी मूर्ति हो। तुम्हारे अंतर-आकाश में जलता हुआ उसका दीया तुम्हारे भीतर उसकी ज्योतिर्मयी छवि मौजूद है। तुम मिट्टी के दीये भला हो ऊपर से भीतर तो चिन्मय की ज्योति है। मृण्यम होगी तुम्हारी देह; चिन्मय है तुम्हारा स्वरूप। मिट्टी के दीये तुम बाहर से हो; ज्योति थोड़े ही मिट्टी की है। दीया पृथ्वी का है; ज्योति आकाश की है। दीया संसार का है; ज्योति परमात्मा की है।सीधी अनुभूति है अंगार है राख नहीं। राख को तो तुम सम्हाल कर रख सकते हो। अंगार को सम्हालना हो तो श्रद्धा चाहिए तो ही पी सकोगे यह आग। कबीर आग हैं। और एक घुंट भी पी लो तो तुम्हारे भीतर भी अग्नि भभक उठे- - सोई अग्नि जन्मों-जन्मों की। तुम भी दीये बनो। तुम्हारे भीतर भी सुरज ऊगे। और ऐसा हो तो ही समझना कि कबीर को समझा। ऐसा न हो तो समझना कि कबीर के शब्द पकड़े शब्दों की व्याख्या की शब्दों के अर्थ जाने पर वह सब ऊपर-ऊपर का काम है। जैसे कोई जमीन को इंच दो इंच खोदे और सोचे कि कुआं हो गया। गहरा खोदना होगा। कंकड़-पत्थर आएंगे। कूड़ा-कचरा आएगा। मिट्टी हटानी होगी। धीरे-धीरे जलस्त्रोत के निकट पहुंचोगे।जीते-जी मरने का अर्थ है : जो मर कर होगा उसे तुम एक घंटा रोज हो जाने दो। कुछ दिन के निरंतर अभ्यास के बाद धीरे-धीरे धीरे धीरे यह अवस्था सधने लगेगी। एक घंटा तुम मुर्दे की भांति पड़े रहोगे। धीरे-धीरे तुम पाओगे श्वास धीमी होती जाती है। जैसे जैसे सधेगी यह कला श्वास धीमी हो जाएगी। क्योंकि जीने वाले के लिए श्वास की जरूरत है; जो मर गया उसके लिए श्वास की क्या जरूरत है? और एक दिन ऐसी घड़ी आएगी कि तुम अचानक पाओगे श्वास बंद है; श्वास चल ही नहीं रही है शरीर बिलकुल मुर्दा पड़ा है। और उसी क्षण तुम्हें पहली दफा बोध होगा अपने पृथक होने का। उसी क्षण-- 'जम ते उलटि भए हैं राम'--उसी क्षण मृत्यु विलीन हो जाती है; राम प्रकट हो जाते हैं; अमृत का अनुभव हो जाता है। फिर तुम तेईस घंटे जीते रहोगे लेकिन रहोगे मुर्दे की भांति। तुम उठोगे काम करोगे सब करोगे; लेकिन तुम जानोगे कि यह शरीर तो मरणधर्मा है मरा हुआ ही है।<br>ओशोकबीर में बड़ा रहस्य है और बड़ा जादू है। कबीर में ऐसा जादू है कि जो तुम्हें जगा दे। कबीर में ऐसा जादू है कि तुम्हें कबीर बना दे। कबीर में ऐसा जादू है कि तुम्हें वहां पहुंचा दे--उस मूल-स्रोत पर--जहां से सब आया है; और जहां एक दिन सब लीन हो जाता है।<br>-ओशो<br>पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदुः<br>• सावधान पांडित्य से।<br>• दुख से मुक्ति कैसे मिले?<br>• मनुष्य का मन उपद्रवी क्यों है?<br>• प्रेम की कसौटी क्या है?<br>• प्रेम परम योग है; उससे ऊपर कुछ भी नहीं है।<br>• प्रेम हमारी प्रकृति है<br>• जीवन का अर्थ क्या है?कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; बे-पढ़े-लिखे हैं इसलिए पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति-पांति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की-शायद मुसलमान के घर पैदा हुए हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति-पांति से परमात्मा का कुछ लेना-देना नहीं है।<br>कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे-जुलाहे-बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गए। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी न छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।<br>और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।<br>कबीर न धनी हैं न ज्ञानी हैं न समादृत हैं न शिक्षित हैं न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।<br>ओशोकबीर ने कहा कि 'ज्यों कि त्यों धर दीन्हीं चदरिया खूब जतन से ओढ़ी कबीरा।' तो कबीर कहते हैं कि ओढ़ी तो पर खूब जतन से ओढ़ी।<br>संन्यासी वह है जो ओढ़े ही न। क्योंकि ओढ़ने में डर है कहीं चदरिया खराब न हो जाए! और गृहस्थ वह है जो डट कर ओढ़े; चाहे फटे चाहे गंदी हो कुछ भी हो जाए। और कबीर ने ओढ़ी--'खूब जतन से ओढ़ी रे चदरिया।'<br>लेकिन जतन से ओढ़ी। यह 'जतन' शब्द बड़ा अदभुत है। कृष्णमूर्ति जिसको 'अवेयरनेस' कहते हैं वही है जतन। बड़े होश से बड़े प्रयत्न से बड़ी जागरूकता से ओढ़ी। और--'ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया।' और जब परमात्मा के पास वापस लौटने लगे तो उसे वैसी ही लौटा दी जैसी उसने दी थी--और ओढ़ी भी। ऐसा भी नहीं कि बिनाओढ़े नंगे बैठे रहे।<br>कबीर यह कह रहे हैं कि गृहस्थ भी रहे और संन्यस्त भी रहे। रहे संसार में और अछूते रहे--कमलवत।