Kabir-Vani mein Kavya-Rudhian


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About The Book

हिंदी साहित्य के पूर्व म/ययुग में अपने व्यक्तित्व और वाणी की आभा से जन–गण में भक्ति एवं सहज–मार्ग की चेतना लाने वाले कबीर सदियों के पश्चात् भी हमारे मनसपटल पर अपनी छवि बनाए हुए हैं । कबीर ही अपने युग के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अक्खड़ता और विनम्रता समाज और भक्ति निर्गुणता और सगुणता गृहस्थ और संतत्व भूत और अध्यात्म अनपढ़ता और ज्ञान आदि परस्परविरोधी तत्त्वों को एक साथ लेकर चले हैं । इस प्रकार क्रांति और समन्वय दोनों उनके व्यक्तित्व के महत्त्वपूर्ण अंग हैं । कबीर का संपूर्ण जीवन हमारे लिए आर्दश है । उनकी सहज काव्यमयी वाणी बड़े–बड़े काव्यज्ञों को दाँतों तले उँगली दबाने को विवश कर देती है। कवि–कर्म का अ/ययन न करने पर भी महत् काव्य की रचना करके वे नवोदित कवियों के लिए अपूर्व प्रेरणा–स्रोत बने हैं । काव्य–रूढ़ियों पर उपलब्ध सामग्री सीमित होते हुए भी काव्य–रूढ़ियों का व्यापक विश्लेषण इस पुस्तक में किया गया है । बहुत–सी ऐसी काव्य–रूढ़ियों का इस पुस्तक में संकेत किया गया है जिनका अभी तक किसी भी अन्य शोध–ग्रंथ में विवेचन नहीं हुआ है । कबीर–वाणी में काव्य–रूढ़ियों के उपयोग के जो उदाहरण इसमें दिए गए हैं वे कबीर–वाणी की काव्यात्मकता को सिद्ध करने के महत्त्वपूर्ण स्रोत बने हैं । प्रस्तुत पुस्तक को छ: अध्यायों में विभाजित किया गया है । इसके प्रथम दो अध्याय सैद्धांतिक हैं और चार अध्याय इस पुस्तक के व्यावहारिक पक्ष हैं । • काव्य–रूढ़ियाँ : सैद्धांतिक विवेचन • कबीर और उनकी काव्यमयी वाणी का सर्वेक्षण • कबीर–वाणी में देवादिक काव्य–रूढ़ियों का प्रयोग • कबीर–वाणी में प्रकृति संबंधी काव्य–रूढ़ियों का प्रयोग • कबीर–वाणी में संख्यावाचक काव्य–रूढ़ियों का प्रयोग • कबीर–वाणी में काव्य–शिल्प संबंधी रूढ़ियों का प्रयोग ।
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