मेरी बचपन की यादों में ‘कजाकी’ एक न मिटने वाला व्यक्ति है। आज चालीस वर्ष गुज़र गए, कजाकी की मूर्ति अभी तक मेरी आँखों के सामने नाच रही है। मैं उस समय अपने पिता के साथ आज़मगढ़ की एक तहसील में था। कजाकी जाति का पासी था, बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही ज़िंदादिल। वह रोज़ शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात भर रहता और सुबह डाक लेकर चला जाता। शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता। मैं दिन भर उद्विग्न हालत में उसकी राह देखा करता, ज्यों ही चार बजते, बेचैन होकर सड़क पर आकर खड़ा हो जाता। वह दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलाई पड़ता। वह साँवले रंग का गठीला, लंबा जवान था। जिस्म साँचे में ऐसा ढला हुआ कि चतुर मूर्तिकार भी उसमें कोई दोष न निकाल सकता। उसकी छोटी-छोटी मूँछें उसके सुडौल मुँह पर बहुत ही अच्छी प्रतीत होती थीं। मुझे देखकर वह और तेज़ दौड़ने लगता, उसकी झुँझुनी और तेज़ी से बजने लगती तथा मेरे दिल में ज़ोर से ख़ुशी की धड़कन होने लगती। हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता और एक पल में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता। वह जगह मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग थी। स्वर्ग के निवासियों को शायद वह आंदोलित आनंद नहीं मिलता होगा, जो मुझे कजाकी के विशाल कंधे पर मिलता था। दुनिया मेरी आँखों में तुच्छ हो जाती और कजाकी मुझे कंधे पर लिये हुए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा महसूस होता, मानो मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूँ। कजाकी डाकख़ाने में पहुँचता तो पसीने से तर-बतर रहता; लेकिन आराम करने की आदत नहीं थी, थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता, कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे गाकर सुनाता और कभी-कभी कहानियाँ सुनाता। उसे चोरी तथा डाके, मारपीट, भूत-प्रेत की सैंकड़ों कहानियाँ याद थीं। मैं कहानियाँ सुनकर विचित्र आनंद में मग्न हो जाता; उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा थे, जो धनी लोगों को लूटकर दीन-दुखी प्राणियों का पालन करते थे। मुझे उन पर नफ़रत के बदले श्रद्धा होती थी। ----------------------------------------------------------------------------------------------- प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के निकट लम्ही ग्राम में हुआ था। उनके पिता अजायब राय पोस्ट ऑफ़िस में क्लर्क थे। वे अजायब राय व आनन्दी देवी की चौथी संतान थे। पहली दो लड़कियाँ बचपन में ही चल बसी थीं। तीसरी लड़की के बाद वे चौथे स्थान पर थे। माता पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा। सात साल की उम्र से उन्होंने एक मदरसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत की जहाँ उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी सीखी। जब वे केवल आठ साल के थे तभी लम्बी बीमारी के बाद आनन्दी देवी का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली परंतु प्रेमचंद को नई माँ से कम ही प्यार मिला। धनपत को अकेलापन सताने लगा। किताबों में जाकर उन्हें सुकून मिला। उन्होंने कम उम्र में ही उर्दू, फ़ारसी और अँग्रेज़ी साहित्य की अनेकों किताबें पढ़ डालीं। कुछ समय बाद उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज में दाख़िला ले लिया। 1895 में पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया। तब वे नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। लड़की एक सम्पन्न ज़मीदार परिवार से थी और आयु में उनसे बढ़ी थी। प्रेमचंद ने पाया कि वह स्वभाव से बहुत झगड़ालू है और कोई ख़ास सुंदर भी नहीं है। उनका यह विवाह सफ़ल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन करते हुए 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया। उनकी तीन संताने हुईं–श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1897 में अजायब राय भी चल बसे। प्रेमचंद ने जैसे-तैसे दूसरे दर्जे से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तंगहाली और गणित में कमज़ोर होने की वजह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई। बाद में उन्होंने प्राइवेट से इंटर व बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वाराणसी के एक वकील के बेटे को 5 रु. महीना पर ट्यूशन पढ़ाकर ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ी। कुछ समय बाद 18 रु. महीना की स्कूल टीचर की नौकरी मिल गई। सन् 1900 में सरकारी टीचर की नौकरी मिली और रहने को एक अच्छा मकान भी मिल गया। धनपत राय ने सबसे पहले उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखना शुरू किया। बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखा। प्रेमचंद ने 14 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय व संस्मरण आदि लिखे। उनकी कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। प्रेमचंद ने मुंबई में रहकर फ़िल्म ‘मज़दूर’ की पटकथा भी लिखी। प्रेमचंद काफ़ी समय से पेट के अलसर से बीमार थे, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य