वो खूबसूरत थी दिलकश थी जवान थी होशियार थी। लेकिन उसके मंसूबे बेहद खतरनाक थे। उसकी गोरी चमड़ी के पीछे उसका काला चेहरा छिपा हुआ था। उसकी रग-रग में अय्यारी और मक्कारी थी। उसकी मदहोश कर देने वाली नजरों से जिसकी भी नजरें मिल जाती थी वो उसका दिवाना बन जाता था। उसकी मासूमियत उसकी जिद और होशियारी ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी । वह एक नंबर की फरेब तवायफ थी। नाम चाँदनी था। इलाहाबाद के मीरगंज की भगोड़ी तवायफ चाँदनी ने पहले कालीगंज को अपना ठिकाना बनाया। इसके बाद अपने सौंदर्य और चातुर्य के बलबूते वह जाने कब केन्द्रीय राजनीति में छा गई पता भी नहीं चला। चाँदनी के लिए कालीमंदिर की बहु से लेकर प्रदेश और केन्द्र की राजनीति में सिक्का जमाना इतना आसान काम भी नहीं था। लेकिन चाँदनी जितनी तपती गई उतनी निखरती गई। कठिन बाधाओं को आसानी से पार करना उसकी हुनर का एक हिस्सा बन चुका था। चाँदनी जैसे-जैसे कठिन बाधाओं को पार करती गई उसकी महत्वाकांक्षा और बलवती होती गई। कालीमंदिर को एक भव्य कोठे में तब्दील करने का सपना देखने वाली चाँदनी के भीतर साम दाम दंड भेद और कूटनीति का अद्भुत तालमेल था। उसने अपनी महत्वाकांक्षा के बीच रोड़ा बनने वाली हर बाधा को रास्ते से हटा देने का फैसला किया था। लेकिन बड़े से बड़ा शातिर भी कभी-कभी अति आत्मविश्वास का शिकार हो जाता है और खुद अपने ही बुने जाल में फंस जाता है। चाँदनी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कुशल रणनीतिकार चाँदनी खुद अपने कुचक्र के जाल में ऐसी फंसी कि उसकी ही साजिश ने उसे कालीमंदिर के अहाते में हमेशा के लिए दफन कर दिया। एक प्रचंड सोच रखने वाली तवायफ चाँदनी की मौत तो हो गई थी लेकिन उसके सपने अभी भी जिंदा थे। कालीगंज में जिस भव्य कोठे की परिकल्पना चाँदनी ने की थी उसे पूरा करने की जिम्मेदारी अब रूपवती तवायफ रूपरेखा के कंधों पर आ गई। चाँदनी की मौत के बाद कालीगंज के कालीमंदिर के कोठे के एश्वर्य को बरकरार रखने में रूपरेखा ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। कालीगंज का यही कोठा कालांतर में कोठा निजामाबाद के नाम से प्रख्यात हुआ। सच कहें तो कालीगंज के कालीमंदिर की कोठी से कोठा निजामाबाद बनने तक की कहानी का सफर जितना रोमाँचकारी है उतना ही रूमानी और अद्भुत भी है।
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