Karamyog : Bhagwat Gita Ka Manovigyan - Bhag-3 (कर्मयोग : भगवत गीता का मनोविज्ञान - भाग-3)
Hindi


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About The Book

ओशो के प्रखर विचारों ने, ओजस्वी वाणी ने मनुष्यता के दुश्मनों पर, संप्रदायों पर, मठाधीशों पर, अंधे राजनेताओं पर, जोरदार प्रहार किया। लेकिन पत्र-पत्रिकाओं ने छापीं या तो ओशो पर चटपटी मनगढंत खबरें या उनकी निंदा की, भ्रम के बादल फैलाए। ये भ्रम के बादल आड़े आ गये ओशो और लोगों के। जैसे सूरज के आगे बादल आ जाते हैं। इससे देर हुई। इससे देर हो रही है मनुष्य के सौभाग्य को मनुष्य तक पहुंचने में।|कर्मयोग का आधार-सूत्र अधिकार है कर्म में फल में नहीं करने की स्‍वतंत्रता है पाने की नहीं। क्‍योंकि करना एक व्‍यक्ति से निकलता है और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं वह मुझसे बहता है लेकिन जो होता है उसमें समस्‍त का हाथ है। करने की धारा तो व्‍यक्ति की है लेकिन फल का सार समष्टि का है। इसलिए कृष्‍ण कहते हैं करने का अधिकार है तुम्‍हारा फल की आकांक्षा अनधिकृत है। लेकिन हम उलटे चलते हैं फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलो को पीदे बांधते हैं कृष्‍ण कर रहे हैं कर्म पहले फल पीछे आता है – लाया नहीं जाता। लाने की कोई सामर्थ्‍य मनुष्‍य की नहीं है करने की सामर्थ्‍य मनुष्‍य की है क्‍यों? ऐसा क्‍यों है- क्‍योंकि मैं अकेला नहीं हूं विराट है।
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