Katha Sahitya Cinema Aur Vridha Jiwan


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About The Book

‘कथा साहित्य सिनेमा और वृद्ध जीवन’ में युवा आलोचक भावना सरोहा ने कथा साहित्य और सिनेमा में वर्णित-चित्रित वृद्धों के जीवन उनकी पारिवारिक-सामाजिक उपेक्षा एकाकीपन निरीहता और समय-समाज के बदलावों से पिछड़ते जाने की उनकी पीड़ा का संवेदनात्मक विश्लेशण प्रस्तुत किया है। बदले हुए समय में संयुक्त परिवारों के विखण्डन ने न केवल बुजुर्गों की पारिवारिक हैसियत को भारी क्षति पहुंचाई बल्कि उनकी अस्मिता और जीवन-बोध से जुड़े अनेक जटिल प्रश्न भी सामने खड़े कर दिये। कहना होगा कि भूमण्डलीकरण और पूंजीवाद की जो मार भारतीय समाज और संस्कृति पर पड़ी उसका दुःखद प्रभाव बुजुर्गों के जीवन में सर्वाधिक दिखाई देता है। पूंजी की केन्द्रीयता ने पारिवारिक- सामाजिक मूल्यों को हाशिए पर धकेल दिया है। तरक्की के युवा स्वप्नों ने बूढ़ी आंखों के सपनों को इतना बेमतलब कर दिया है कि वृद्धावस्था जीवन की परिपक्वता का सूचक न रहकर अभिशाप बन गई है। आज पीढ़ियों का अन्तर वैचारिक असहमति से आगे बढ़कर जीवन-मूल्यों का अन्तर बन गया है। ‘ओल्ड एज होम्स’ की संख्या बढ़ती जा रही है। मुहावरे में कहे तो ‘जिन्होंने पलकों पर पाला बच्चों ने उन्हें ही घर से निकाला। भावना अपनी पुस्तक में वृद्ध जीवन से जुड़े प्रसंगों को संवेदनशीलता और अन्तर्दृश्टि के साथ विवेचित करती हैं। अपनी पूर्णता में उनकी यह पुस्तक न सिर्फ प्रचलित अध्ययन प्रणाली से भिन्न है बल्कि बदलते समय के लिए एक दीपक की तरह है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भावना सरोहा की यह पुस्तक आलोचनात्मक पुस्तकों की भीड़ में अलग से पहचानी जाएगी।
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