एक उम ऐसी अली है जब व्यक्ति अपने समूचे जीवन-व्यापार को स्वय से पूथकू होकर निरपेक्ष भाव से देखने की कोशिश कस्ता है। वह देखना कितना व्यापक कितना गहरा है यह व्यक्ति-विशेष के अपने मानसिक-बौद्धिक स्तर पर निर्भर करता है। अंग्रेजी साहित्य के मर्मज्ञ और हिन्दी के विचारशील लेखक रमेशचंद्र शाह के इस नये उपन्यास में क्या का केद्रीय चरित्र 'सनातन' जीवन की सत्तरवीं दहलीज पर खड़। होकर अपने बिगत जीवन की समग्रता पर दुष्टिपात्त करता है और आत्मसाक्षात्कार भी। बिन्तु 'सनातन' का यह आत्पसाक्षात्कार एक व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि दानि चिंतन और मानव जीवन से जुड़े उन सभी प्रश्नों तक जाता है जो सनातन काल से विमर्श का बिषय रहे हैं और जिनका सामना किसी बुछिसम्पन्न व्यक्ति को जीवन-भर करना होता है। बीसवीं सदी के महान अग्रेजी-मकार जेग्स जॉयस द्वारा विकसित कहानी क्सने की रट्रीम आँफ काशसनेस' अर्थात् चेतना-प्रवाह शेली में लिखा गया यह उपन्यास अपने अंतिम पृष्ठ तक पाठक को कथा-रस से संपृक्त रखता है और ज्ञान-चक्षुओ पर पडे झीने पर्दे के पीछे देखते की जिजीविषा से ऋता है।
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